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________________ सन्धि ३ वह नन्न नामक महापुरुष सुखी रहे, जो नक्षत्रोंके स्वामी चन्द्रकी किरणोंके समूहसे भी अधिक स्वच्छ और विशाल कीर्तिका घर है, जो समस्त शास्त्रोंके अर्थका निर्णय करने में समर्थ है, जो देवोंके स्वामी इन्द्र द्वारा प्रणमित केवली भगवान्के चरणोंका भक्त है, भव्य जनोंका भ्राता है, निरन्तर इस संसार रूपी समुद्र में जन्म-मरणसे भयभीत है, नीतिका जानकार है, इन्द्रियों का विजेता है तथा स्नेह और विनयसे युक्त है ॥१॥ १. उज्जैनीके समीप सिप्रा नदीका वर्णन फिर अभयरुचि अपने भवभ्रमणके क्लेशोंकी कथा राजा मारिदत्तको सुनाने लगा। उसने कहा कि उज्जैनीके समीप स्वच्छ और गम्भीर द्रहों सहित सिप्रा नामकी नदी है । वह अपने तटवर्ती वृक्षोंसे गिरने वाले पुष्पोंके समूहोंसे उज्ज्वल है, तथा पवनके कारण तरंगोंसे चलायमान है। इस कारण वह ऐसी दिखाई देती है मानो पृथ्वीरूपी महिलाको लहलहाती हई पचरंगी साड़ी हो। जलक्रीडा करती हई यवती स्त्रियोंके सघन स्तनयगलोंसे धलकर गिरे हए केशरसे वह नदी लाल हो रही है, तथा वायुके थपेड़ोंसे उठनेवाली विशाल कल्लोलों द्वारा वहाँ मदोन्मत्त हाथी उत्प्रेरित हो रहे हैं। वहाँ कछुओं और मछलियोंकी पूंछोंके संगठनसे सीपोंके सम्पुट विघटित हो रहे हैं, और तटपर पड़ते हुए श्वेत मुक्ताफलों सहित जलकणों द्वारा सोके फण सींचे जा रहे हैं। वहाँका पानी स्नान करती हुई रानियोंके शरीरके भूषणोंको किरणोंसे लाल वर्ण हो रहा है। सारस. स्वर्ण चातक. भास और कारण्ड तथा कलहकारी हंसोंसे वह नदो सम्मानित है। वहाँ चंचल तरंगोंमें लोग चल रहे हैं, रमण कर रहे हैं और तैर रहे हैं, तथा स्वच्छ कमलोंकी सुगन्धका स्वाद लेते हुए भौंरे रुन-झुन करते हुए मंडरा रहे हैं। उसके स्वच्छ तटपर तपमें संलीन तापसोंके आश्रम मनोहर दिखाई दे रहे हैं, तथा शीतल जलके पवनसे आश्वस्त होकर मृगों तथा अन्य वनचरोंके समूह विचरण कर रहे हैं। उसके जलमें जो मकर और हाथियोंका युद्ध हो रहा है उसके कारण हाथियों द्वारा अपनी सूड़ोंसे उछाले हुए जलसे तटवर्ती वानर त्रस्त हो रहे हैं। तथा गिरनेवाले फुफकारके जलसे मुख भर जानेके कारण चातकोंके समूह प्रसन्न हो रहे हैं, उस नदीका तट गड्ढोंकी कीचड़से युक्त गहरी खदानोंमें खेलते और क्रीड़ा करते हुए सूकरोंसे संकुलित है, एवं वहाँके सघन व मधुकरोंसे व्याप्त तमाल वृक्षोंके पुंज व्यभिचारिणी स्त्रियोंके समूहोंसे नित्य सेवित रहते हैं। __ मैं उस निष्ठुर तरक्षकी दाढ़ोंके घातसे मरकर उसी नदीमें आकर एक मछलीके गर्भ में स्थित हुआ ॥१॥ २. नदीमें सुंसुमारका जन्म तथा अन्तःपुरको स्त्रियोंकी जलक्रीड़ा वहाँ मछलोके गर्भसे उत्पन्न होकर मैं बड़ी-बड़ी पाठोन मछलियोंके शरीरका विदारण करने योग्य हो गया और आकाशमें उछलने-कूदने, परावर्तन करने तथा जलको भौंरोंको लाँघने में कुशल हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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