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________________ २. १६. ४ ] हिन्दी अनुवाद नीचे गिर पड़ा। वहाँ मैंने एक विकराल दाढ़ोंवाले योधाको देखा जो हाथमें दण्ड लिये हुए ऐसा दिखाई देता था मानो प्रत्यक्ष काल हो हो । वह बड़ा दुर्दर्शन, भीषण और दुनिरीक्ष्य था। उसकी आँखें लाल कमलदलोंके सदश थीं। हे माता, उसने कहा तू जिनेन्द्र भगवान्के परमोपदेशोंसे युक्त दीक्षा शोघ्र ग्रहण कर ले, नहीं तो मैं तुझे समस्त परिग्रहसहित आज ही खा जाऊँगा। किसकी यह पृथ्वी है और किसका यह राज्य ? इसपर मैंने अपना मुख और सिर मुड़ा डाला और इन्द्रियों के दुस्सह बलको दण्डित किया ( इन्द्रियोंका दमन करने लगा)। इसलिए हे माता, मेरे निश्चल-बुद्धि पुत्र यशोमतिको राजसिंहासनपर स्थापित कर, वही जिनदीक्षा ग्रहण रूप कार्य किया जाय और रात्रिमें जो निकृष्ट शकुन देखा है उसे माना जाये ॥१३॥ १४. यशोधरका मातासे विचार-विनिमय मेरी बात सुनकर अज्ञानवश मुनिके गुणोंका हनन करनेवाली मेरी जननी ने कहा-अपनी कुलदेवी है जो सब आशाओंकी पूर्ति करती है व चिन्तित मनोरथोंको भी क्रियान्वित करा देती है। अतएव उसीको नाना जातिके जीवोंको बलि दी जाये जिससे दुःख, क्लेश व कलह का प्रशमन हो। इसी विधिसे सज्जनोंके मन और नयनोंको आनन्ददायी मेरे पुत्र, तुमको शान्ति प्राप्त हो जाये। माताके ये वचन सुनकर मेरा हृदय करुणासे कम्पित हो उठा ओर मैंने माँसे कहा, हे पूज्य माता, प्राणियोंका वध करना आत्मघात ही है, अतएव इस प्राणिहिंसारूपो दुष्कर्मका पुज क्यों एकत्र किया जाये ? पशुओंकी हिंसा करके मनुष्य स्वयं कहाँ बच सकता है ? पापीको उसका पाप खोदकर भी खा जाता है । जो कुछ दूसरोंके लिए अप्रिय सोचा जाता है वही क्षणार्धमें अपने घर आ पहुँचता है। दूसरेको मारनेवाला दूसरे द्वारा मारा जाकर स्वयं भी मरता है। वह विघ्नरूपी महानदीके पार केसे उतर सकता है ? इस लोक और परलोकके लिए जीव-हिंसा भयकारी है । हे माता, वह जीव-हिंसा दुनिरीक्ष्य आयुक्षय होनेपर क्या उपकार कर सकती है ? ॥ १४ ॥ १५. यशोधर द्वारा हिंसाको निन्दा और अहिंसा धर्मको प्रशंसा ___ क्या नैवेद्य नहीं था ? मेषसमूह नहीं था? क्या देव नहीं था व देवालय नहीं था ? क्या सरस मद्य भक्षण नहीं था और क्या लोग शैवशास्त्रके वशीभूत नहीं हुए ? लोभी क्या चिरकालसे सभी मनुष्य क्षयको प्राप्त नहीं हुए ? क्या उन्होंने योगिनोकी पूजा नहीं की थी? जगत्में हिंसा केसे शान्तिकारी हो सकती है ? वे मर्ख ही हैं जो शिलाको नावसे नदी पार करना चाहते हैं। हे माता, जो कुछ मुनिवरोंने उपदेश दिया है उसे मैं तुम्हें कहता हूँ क्योंकि तुमने उसे अभी तक नहीं सुना । जगत्में अहिंसा धर्म ही परमार्थ है। एक जोवके लिए दूसरे जीवकी हिंसा नहीं करना चाहिए। यह सुनकर अम्मा बोली, जिनवचनको फाड़कर फेंको। जगत् में वेद ही धर्मरूपी वृक्षका मूल है। वेदानुसार ही राजाके व्यवहारका मार्ग कहा गया है। क्या किया जाये, वेदमें बलिदानकी महिमा है व पशुमारणको परमधर्म कहा गया है। पशुको मारना और मांस जीमना (खाना) इसी रीतिसे स्वर्ग और मोक्षका गमन किया जाता है । यह बात जिस प्रकार विशालबुद्धि द्विजगुरुने कही है उसी प्रकार कुलगुरुने भी ।।१५।। १६. माताका हठ होनेपर भी यशोधरका अहिंसक-भाव तथा हिंसकोंके नरकगमनका भय ___ माताने कहा कि हे पुत्र, मेरो बातपर विचार करो और पशुका बलिदान कर अपनी शान्ति और कान्तिको रक्षा करो। इसीसे तुम्हारी तुष्टि होगी और पुष्टि। उसीके द्वारा धवलाश्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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