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________________ २. ६.४ ] हिन्दी अनुवाद ४. अन्तःपुरकी आठ भूमियोंका वर्णन उस अन्तःपुर प्रासादको द्वितीय भूमि मोतियोंसे जड़ी हुई थी जैसे मानो मालती पुष्पपुजोंसे उसकी पूजा की गयी हो। द्वारपर राजसोपानसे लक्षित तृतीय भूमि पद्मरागमणियोंसे विभूषित थी। चतुर्थ भूमि मरकतके सुन्दर रत्नोंसे विरचित होती हुई अत्यन्त तेजसे लिप्त दिखाई देती थी। पंचम भूमि नील रत्नसमूहोंसे प्रसादित और महान् शोभासे शोभित थी। विद्रुमपुजों युक्त शिलाओंसे घटित छठी-भूमि ऐसी दिखाई देतो थी मानो उसे स्वयं विश्वकर्माने रचा हो । सप्तम भूमि पद्मराग मणियोंके समूहसे घटित थी और वहाँ विशेष रूपसे स्वर्णमय शुक, हंस और मोर बड़ी उत्तम कारीगरीके साथ बैठाये गये थे। गृहचक्रा नामकी अष्टम भूमि चन्द्रकान्त शिलारत्नोंसे देदीयमान थी। इस प्रकार उस अतिसुन्दर प्रासादको मैंने सातों भूमियां देखीं और मेरी मति ऐसी कम्पायमान हुई मानो मैं नरकोंमें प्रविष्ट हुआ होऊँ ॥४॥ ५. पत्नी-मिलन में आठवीं पृथ्वी-तलपर पहुँच गया तो भी मेरे कर्मोंका मल नष्ट नहीं हुआ। मैं पापकर्मी कामदेव द्वारा सताया गया था। मेरा सर्वांग गृहिणोके स्नेहसे रचित था। मेरा समस्त शरीर रोमांचित हो रहा था । सारा अंग पसीनेसे सिंच रहा था । समस्त देह कैंप रही थी, बल खा रही थी और इस प्रकार चल रही थो मानो विषैले सपने डस लिया हो। वहाँ पहुँच कर ज्यों ही मैंने प्रियाके घरके आँगनको देखा त्यों ही ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैंने उसका आलिंगन कर लिया हो। वहाँसे अर्द्धद्वारके अर्द्ध-भागसे निकलकर एक भाषाकुशल सुवर्णदण्डधारी प्रतिहारिकाने विनयपूर्वक नमन करते हुए मेरी जयजयकार की। फेनसे ढके हुए नये कमलके सदश हाथको श्वेतवस्त्रसे ढाँके हए मैं सहारेसे वहाँ प्रविष्ट हआ। में क्या जानता था कि हत्यारा दैव मेरा सत्यानाश कर रहा है। वहाँ मेरी घ्राण-इन्द्रियने प्रियाके मुखकी श्वासगन्धसे वासित सुरभिका सुख पाया। उसका आलाप कानोंको सुखकी निधि समान प्रतीत हआ। अपने नेत्रपटों द्वारा मैंने उसके रूपके रसका पान किया और जिह्वाके द्वारा सरस मुखरसका लाभ लिया। उसके शरीरके स्पर्शसे मेरी देहको आनन्द मिला । इस प्रकार मेरो वह प्रियतमा पांचों-इन्द्रियोंके लिए सुखका निधान प्रतीत हुई। मैंने अपने सम्मुख उस सुन्दरीको ऐसा पाया जैसे मानो उसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रसे रचा गया हो। उसका अवलोकन, सम्भाषण, दान, संग, विश्वास, प्रिया-मिलन और रति-क्रीड़न जैसा मुझे प्राप्त हुआ वैसा किसीको नहीं ॥५।। ६. पत्नीका अभिसार उसकी वह धीरे-धीरे कानाफूसी, वह गम्भीर मधुर और मनोहर सम्भाषण, वह हावभाव और विभ्रम का स्फुरण, वह रति-रससे भरपूर हास्य और रमण, वह क्षीण कटि, वे तुंगस्तन, पुरुषों के मनको आकर्षित करनेवाले वे दीर्घनयन, वह श्यामवर्ण और वह भोला मुख, इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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