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________________ २. ३. १३] हिन्दी अनुवाद लक्ष्मीविलास सदश प्रतीत होता। मुझे लगता कि वह दुःखदायी और सुखरहित लोकभार सम्बन्धी व्यापार व्यर्थ है जिसमें अपने नेत्रोंका इष्ट, रमणासक्त, निर्मल तरुणीमुखका दर्शन नहीं होता। __ एक दिनकी बात है कि सूर्य अपनी किरणोंका प्रसार करता हुआ रक्त-वर्ण अस्ताचलके ऊपर ( अत्थहो) स्थित दिखाई दिया। क्या कहा जाये? अर्थ (धन) किससे छोड़ा जाता है ? ॥१॥ २. रात्रि-वर्णन जहाँ अस्ताचलपर स्थित मित्र ( सूर्य ) अनुरक्त हुआ (लाल हुआ ) वहाँ, बाप रे, दिशारूपी नारी भी रक्त ( लालानुरागयुक्त ) हो उठी। सूर्य भी कहाँतक तपेगा? अनेक पहरोंके (दिनके ४ पहरों) पश्चात् उसका भी अस्त होना निश्चित है, जिस प्रकार कि रण में वीरता दिखानेवाला सूर भी अनेक प्रहारोंसे आहत होकर मृत्युको प्राप्त होता है। सूर्य उदित हुआ और फिर मानो अधोगतिको प्राप्त हुआ, जैसे कहीं बोया हुआ बीज लाल अंकुरके रूपमें प्रकट हुआ हो। उसके द्वारा वहाँ सन्ध्यारूपी लता निकलकर समस्त जगत्रूपी मण्डपपर छा गयी। वह तारावलीरूपी कुसुमोंसे युक्त हो उठी तथा पूर्णचन्द्ररूपी फलके भारसे झुक गयी। जैसे माना अनुरक्त हुई गोपी कृष्णके द्वारा आच्छादित हुई हो, ऐसी ही सन्ध्याकालीन रक्तिमासे लाल हुई भूमि पहले हरे तृणसे आच्छादित हुई और उस तृणको सघनअन्धकाररूपी हाथीने चर लिया। अब चन्द्रमाका उदय हआ। मानो वह अन्धकारसमहको खण्डित करनेवाला चक्र हो. मानो देवोंके कृष्णमुखका मण्डन हो, मानो कीर्तिदेवीने अपना मुख दिखलाया हो, मानो लोगोंको सुखदायी अमृतकुण्ड प्रकट हुआ हो, मानो परमेश्वरका यशःपुंज हो, मानो इन्द्रका श्वेत छत्र हो, मानो रात्रिरूपी वधूके मस्तिष्कका तिलक हो, अथवा स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंके गमनागमनको रोकनेका साधन हो। ___ यशोधरने नभस्तलमें नक्षत्रोंको बारह राशियोंको देखा, जैसे मानो वे धानसे पूरित खलिहानमें धानकी बारह राशियाँ हो । मृग चन्द्रका आश्रय लेकर रह रहा है, इसीसे उसका नाश नहीं होता ॥२॥ ३. यशोधरका अन्तःपुर प्रवेश चन्द्रमारूपी घटसे गिरती हुई सघन ज्योत्स्नारूपी क्षीरसे मानो भुवनका स्नान हो रहा था। सबकुछ ऐसा श्वेत दिखाई देता था जैसे मानो वह चाँदोसे निर्मित हो, तथा हिमको हारावलियोंसे आच्छादित हो। ऐसे समय अपने साथियोंको विसर्जित करके कण्ठमें मोतियोंकी माला पहने एवं सुवर्णमय यष्टिकाकी कान्तिसे अपने हाथको पोला किये हुए द्वारपालने आकर मुझे प्रणाम किया और प्रार्थना की कि आप देवगृहके सदश महादेवीके निवासपर चलिए। तब में वहाँसे चल पड़ा। मेरे आगे-आगे एक सेवक दीपक लेकर अन्धकारको दूर करते हुए चल रहा था और दूसरा मेरे ऊपर चमर डोलता जाता था। कितने ही गायकोंके गायनको सुनता हुआ तथा कतिपय सेवकोंसे सेवित मैं चलते-चलते उस रम्य गृहमें पहुँचा जिसका शिखर मणियोंसे जड़ा हुआ था, भित्तियाँ चित्रोंकी रेखासे रमणीय थीं और जहाँ नाना प्रकारके वादित्र बज रहे थे। उस रमणीय गृहके प्रांगणकी वापीमें सुन्दर सारस पक्षी कोड़ा कर रहे थे। कामिनियों द्वारा वीणाध्वनिको झंकार हो रही थी। लटकती हुई मोतियोंकी मालाको शोभा हो रही थी तथा फूल-मालाओंसे भौंरोंके पुंज प्रसन्न हो रहे थे। वहां पहुंचकर मैंने शुद्ध स्फटिक मणियोंसे रचित अति-उज्ज्वल एवं रत्नोंसे चमचमाती हुई आकाशके सदृश विशुद्ध भूमितलको देखा ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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