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________________ योगसार- प्राभृत [ अधिकार १ व्याख्या - कर्मोंके उदयके निमित्तसे सब संसारी आत्माओं में जो दोष-विकार उत्पन्न होते हैं उन्हें औदयिक भाव कहते हैं और वे मुख्यतः इक्कीस प्रकारके माने गये हैं । उनमें - से यहाँ प्रथम पद्यमें राग, द्वेष, मद (मान), क्रोध, लोभ, मोह ( मिथ्यादर्शन ) इन नामोंसे छहका तो उल्लेख किया है, शेष सबका आदि अर्थवाचक 'पुरस्सराः' पदके द्वारा संग्रह किया गया है, जिनमें नर-नारक- तिर्यक देव ऐसे चार गतियोंके भावका, माया कषायका, पुरुषस्त्री-नपुंसक भावरूप तीन लिंगों (वेदों ) का, कृष्ण-नील कापोत- पीत-पद्म-शुक्ल-रूप छह भाव लेश्याओं का, एक अज्ञान, एक असंयम और एक असिद्ध भावका समावेश है । इस तरह संख्या २१ के स्थानपर २३ हो जाती है, जिसका कारण राग और द्वेषको प्रसिद्धिके कारण अलग से गिननेका है, जबकि वे कषाय-नोकषायमें आ जाते हैं; क्योंकि राग लोभ, माया, हास्य, रति, काम इन पाँच रूप और द्वेष, क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह रूप होता है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि राग, द्वेष और मोह में यद्यपि सारा मोह कर्म आ जाता है फिर भी क्रोध, मान और लोभादिकका जो यहाँ अलगसे ग्रहण किया है उसे स्पष्टता की दृष्टिसे समझना चाहिए। औदयिक भाव सब विभाव होते हैं -स्वभाव नहीं; इसीसे उन्हें 'दोष' पदके द्वारा उल्लिखित किया है, जो कि विकार-वाचक है । ૪ दूसरे पद्य में यह बतलाया है कि यदि चेतनात्माके इन क्रोधादिक औदयिक भावोंका चेतनात्माके स्वभाव से होना माना जाय तो मुक्तात्माके उनके होनेका निषेध कैसे किया जा सकता है ? -- नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्वभावका तो कभी अभाव नहीं होता, अतः संसारावस्थासे मुक्ति अवस्थाके प्राप्त होनेपर भी उनका अस्तित्व बना रहना चाहिए; जबकि वैसा नहीं है । वैसा माननेपर संसारी और मुक्त जीवोंमें फिर कोई भेद नहीं रहता और 'संसारिणी मुक्ताश्च' (जीवाः)' इस सूत्रका विरोध घटित होता है । जीवके गुणस्थानादि २० प्ररूपणाओं की स्थिति 'गुणजीवादयः सन्ति विंशतिर्याः प्ररूपणाः । कर्मसंबन्धनिष्पन्नास्ता जीवस्य न लक्षणम् ||५७॥ 3 'गुणस्थान-जीवसमास-मार्गणास्थान आदि जो बीस प्ररूपणाएँ हैं वे जीवके कर्म-सम्बन्धसे निष्पन्न होती हैं; जीवके लक्षणरूप नहीं हैं।' व्याख्या - यहाँ 'जीवस्य पद उसी शुद्ध स्वभावस्थ जीवात्माका वाचक है जिसका कथन पहलेसे चला आ रहा है और जिसके लिए अगले पद्य में 'विशुद्धस्य' इस विशेषण-पदका प्रयोग किया गया है और जो कर्म के सम्बन्धसे रहित विविक्त (विमुक्त) निष्कल परमात्मा होता है । उसीको यहाँ यह कहकर और स्पष्ट किया गया है कि गुणस्थान, जीवसमास आदि जो बीस प्ररूपणाएँ हैं वे भी उसका कोई लक्षण नहीं हैं। उन बीस प्ररूपणाओंके नाम हैं: - १. गुणस्थान, २ . जीवसमास, ३. पर्याप्ति, ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६- १९ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, आहार नामकी २४ मार्गणाएँ, २० उपयोग; जैसा कि आगम-प्रसिद्ध इन दो गाथाओंसे जाना जाता है : Jain Education International १. गति - कषाय-लिङ्ग - मिथ्यादर्शनाज्ञाना संयतासिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कै कैकषड्भेदाः । - - त० सूत्र २०६ २. रागः प्रेम रतिर्माया लोभं हास्यं च पञ्चधा । मिथ्यात्वभेदयुक् सोऽपि मोहो द्वेषः क्रुधादिषट् ॥ - अध्यात्म रहस्य २७ । ३ णेव य जीवट्ठाणा ण गुणद्वाणा य अत्थि जीवस्य । जेण एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्त परिणामा ॥ ५५॥ - समयसार । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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