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________________ ४२ धर्मार्थ लोक-पंक्ति और लोक-पंक्ति के लिए धर्म मुक्ति-मार्गपर तत्पर होते हुए भी सभीको मुक्ति नहीं योगसार-प्राभृत १६३ १६४ १६४ भवाभिनन्दियोंका मुक्ति के प्रति विद्वेष जिनके मुक्ति के प्रति विद्वेष नहीं वे धन्य १६४ मुक्तिमार्गको मलिनचित्त मलिन करते हैं १६७ मुक्तिमार्गके आराधन तथा विराधनका १६७ १६७ फल मार्ग की मलिनतासे होनेवाले अनर्थका सूचन हिंसा- पापका बन्ध किसको और किसको नहीं Jain Education International १६८ १६६ पूर्व कथनका स्पष्टीकरण अन्तरंग - परिग्रहको न छोड़कर बाह्यको छोड़नेवाला प्रमादी अन्तःशुद्धिके बिना बाह्यशुद्धि अविश्व सनीय १६६ १७० प्रमादी तथा निष्प्रमादी योगीकी स्थिति २७० जीवघात होनेपर बन्ध हो न भी हो, परिग्रहसे उसका होना निश्चित १७१ एक भी परिग्रह के न त्यागनेका परिणाम १७१ चेलखण्डका धारक साधु निरालम्ब-निरारम्भ नहीं हो पाता वस्त्र पात्र ग्राही योगीके प्राणघात और चित्तविक्षेप अनिवार्य विक्षेपकी अनिवार्यता और सिद्धिका अभाव १७२ जिसका ग्रहण त्याग करते कोई दोष न लगे उसमें प्रवृत्तिकी व्यवस्था १७३ कौन पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए १७४ कायसे भी निस्पृह मुमुक्षु कुछ नहीं ग्रहण : करते १७४ स्त्रियों का जिनलिङ्ग ग्रहण सव्यपेक्ष क्यों ? १७४ पूर्वप्रश्नका उत्तर : स्त्री पर्यायसे मुक्ति न होना आदि पुरुष जिन लिङ्ग-ग्रहण के योग्य १७५ १७७ १७२ १७२ जिनलिङ्ग- ग्रहणमें बाधक व्यङ्ग व्यङ्गका वास्तविक रूप व्यावहारिक व्यंग सल्लेखना के समय अव्यंग नहीं होता कौन श्रमण अनाहार कहे जाते हैं केवलदेह- साधुका स्वरूप केवलदेह - साधुकी भिक्षाचर्याका रूप वर्जित मांस दोष मधु-दोष तथा अन्य अनेशनीय पदार्थ हस्तगतपिण्ड दूसरेको देकर भोजन करनेवाला यति दोपका भागी बाल-वृद्धादि यतियोंको चारित्राचरणमें दिशाबोध बुद्धि, ज्ञान और असम्मोहका स्वरूप बुद्धयादिपूर्वक कार्योंके फलभेदकी दिशा- सूचना १७८ १७८ १७६ १७६ १८० १८० १८१ १८१ ९८४ स्वल्पलेनी यति कब होता है। १८४ तपस्वीको किस प्रकारके काम नहीं करने १८४ आगमकी उपयोगिता और उसमें सादर प्रवृत्तिकी प्रेरणा समान अनुष्ठान के होनेपर भी परिणामादिसे फल-भेद १८५ बुद्धि, ज्ञान और असम्मोहके भेदसे सारे कर्म भेदरूप १८३ १८८ For Private & Personal Use Only १८६ १८६ १८९ बुद्धिपूर्वक सब कार्य संसारफलके दाता १६० ज्ञानपूर्वक कार्य मुक्तिहेतुक सम्मोह पूर्वकार्य निर्वाणसुखके १९० प्रदाता १९० १६१ भवातीत मार्ग - गामियोंका स्वरूप भवातीतमार्ग-गामियों का मार्ग सामान्य की तरह एक ही शब्दभेद के होनेपर भी निर्वाण तत्त्व एक १९१ १९९ १९२ १९३ विमुक्तादि शब्द अन्वर्थक निर्वाण तव तीन विशेषणोंसे युक्त. असम्मोहसे ज्ञात निर्वाण तत्व में विवाद तथा भेद नहीं होता निर्वाण मार्गकी देशनाके विचित्र होने कोई का कारण १९३ १६३ www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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