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भाष्यका अन्त्य मंगल और प्रशस्ति
राग-द्वेष-कामादि जीत जिन, स्वस्वभावको अपनाया; निरवधि-सुख-दृग ज्ञानवीर्य-मय, परम निरंजन-पद पाया। दिव्यध्वनि से तीर्थ प्रतित किया मोक्ष-पथ दर्शाया; उन योगीश्वर महावीर का सुर-नर मिलकर यश गाया ॥१॥ महावीर के तीर्थ-प्रणेता स्याहादिनि-विद्याधिप सार; कविवर गमक-वाग्मि-वादोश्वर भावि तीर्थकर गुण-प्राधार । जिनकी भक्ति-प्रसाद बना यह रुचिर-भाष्य जग का हितकार; उन गुरु स्वामि-समन्तभद्र को नमन करूँ मैं बारंबार ॥ २ ॥ प्रल्प बुद्धि 'युगवीर' न रखता योग-विषय पर कुछ अधिकार; प्रात्म-विकास-साधना का लख, योग-सिद्धि को मूलाधार । निःसंगात्म-अमितगति-निर्मित, योगसार प्राभूत सुख-द्वार; उससे प्रभवित-प्रेरित हो यह, रचा भाष्य प्रागम-अनुसार ॥ ३ ॥ पढ़ें-पढ़ावें सुनें-सुनावें जो इसको आदर के साथ; प्रमुदित होकर चलें इसी पर, गावें सदा प्रात्म-गुरण-गाथ। प्रात्म-रमण कर स्वात्म-गुरणों को, औ' ध्यावें सम्यक् सविचार; वे निज प्रात्म-विकास सिद्ध कर, पावें सुख अविचल-अविकार ॥ ४ ॥
इति योगसार प्राभृतं समाप्तम् ।
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