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________________ पद्य ८२-८३ ] चूलिकाधिकार २२५ ब्रह्मप्राप्त्यै परममकृतं स्वेषु चात्म-प्रतिष्ठं नित्यानन्दं गलित-कलिलं सूक्ष्ममत्यक्ष-लक्ष्यम् ।।८३॥ 'सारे दृश्य जगत्को आकाशमें बादलोंसे बने हुए नगरके समान, स्वप्नमें देखे हुए दृश्योंके सदृश तथा इन्द्रजालमें प्रदर्शित मायामय चित्रोंके तुल्य देखकर निःसंगात्मा अमितगतिने उस परम ब्रह्मको प्राप्त करनेके लिए जो कि आत्माओंमें आत्म-प्रतिष्ठाको लिये हुए है, कर्म-मलसे रहित है, सूक्ष्म है, अमूर्तिक है, अतीन्द्रिय है और सदा आनन्दरूप है, यह योगसार प्राभूत रचा है, जो कि योग-विषयक ग्रन्थोंमें अपनेको प्रतिष्ठित करनेवाला योगका प्रमुख ग्रन्थ है, निर्दोष है, अर्थको दृष्टिसे सूक्ष्म है-गम्भीर है-अनुभवका विषय है और नित्यानन्दरूप है-इसको पढ़ने-सुननेसे सदा आनन्द मिलता है।' ____ व्याख्या-यहाँ ग्रन्थकार महोदयने ग्रन्थके कर्तृत्वादिकी सूचना करते हुए प्रन्थका नाम 'योगसारप्राभूत', अपना नाम 'अमितगति' और ग्रन्थके रचनेका उद्देश्य 'ब्रह्मप्राप्ति' बतलाया है । ब्रह्मप्राप्तिका आशय स्वात्मोपलब्धिका है, जिसे 'सिद्धि तथा 'मुक्ति' भी कहते हैं। और जो वस्तुतः सारे विभाव-परिणमनको हटाकर स्वात्माको अपने स्वभावमें स्थित करनेके रूपमें है-किसी परपदार्थ या व्यक्ति-विशेषकी प्राप्ति या उसमें लीनताके रूपमें नहीं। इसी उद्देश्यको ग्रन्थके प्रारम्भिक मंगल-पद्यमें 'स्वस्वभावोपलब्धये' पद्यके द्वारा व्यक्त किया गया है, उसका मुख्य विशेषण भी 'स्वस्वभावमय दिया है। इससे स्वभावकी उपलब्धि रूप सिद्धि ही, जिसे प्राप्त करनेवाले ही 'सिद्ध' कहे जाते हैं, यहाँ ब्रह्मप्राप्तिका एक मात्र लक्ष्य है, यह असन्दिग्धरूपसे समझ लेना चाहिए । ग्रन्थकारने अपना विशेषण 'निःसंगात्मा' दिया है जो बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और इस को सूचित करता है कि ग्रन्थकार महोदय केवल कथन करनेवाले नहीं थे किन्तु ग्रन्थके कथन एवं लक्ष्यके साथ उन्होंने अपनेको रँग लिया था, परपदार्थोंसे अपना ममत्व हटा लिया था। उन्हें अपने संघका, गुरु-परम्पराका तथा शिष्य-समुदायका भी कोई मोह नहीं रहा था, इसीसे शायद उन्होंने इस अवसरपर उनका कोई उल्लेख नहीं किया। उनका आत्मा निःसंग था, परके सम्पर्कसे अपनेको अलग रखनेवाला था और इसलिए उन्हें सच्चे अर्थमें 'योगिराज' समझना चाहिए। जो सत्कार्योंका दूसरोंको जो उपदेश देते हैं उनपर स्वयं भी चलते-अमल करते हैं वे ही 'सत्पुरुष' होते हैं। उन्हींके कथनका असर भी पड़ता है। ___इस पद्यमें 'परमब्रह्म'के जो विशेषण दिये गये हैं वे ही प्रकारान्तरसे प्रन्थपर भी लागू होते हैं और इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह ग्रन्थ अपने लक्ष्यके बिलकुल अनुरूप बना है। उदाहरणके लिए 'नित्यानन्द' विशेषणको लीजिए, इस ग्रन्थको जब भी जिधरसे भी पढ़तेअनुभव करते हैं उसी समय उधरसे नया रस तथा आनन्द आने लगता है। और इसीलिए इस ग्रन्थको 'रमणीय' कहना बहुत ही युक्ति-युक्त है। रमणीयका स्वरूप भी यही है"पदे-पदे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः"-पद-पदपर जो नवीन जान पड़े वही रमणीयताका स्वरूप है । जबसे यह ग्रन्थ मेरे विशेष परिचयमें आया है तबसे-तत्त्वानुशासन (ध्यानशास्त्र) का भाष्य लिखनेके समयसे-मैंने इसे शायद सौ बारसे भी अधिक पढ़ा है और इसकी सुन्दरता, सरलता-गम्भीरता तथा उपयोगिताने ही मुझे इसका भाष्य लिखनेको ओर प्रेरित किया है। १. मु परमकृत । २. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ( पूज्यपादाचार्य )। २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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