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________________ प्रस्तावना ग्रन्थका संक्षिप्त विषय-परिचय और महत्त्व यह ग्रन्थ ९ अधिकारों में विभक्त है जिनके नाम हैं-१ जीवाधिकार, २ अजीवाधिकार, ३ आस्रवाधिकार, ४ बन्धाधिकार, ५ संवराधिकार, ६ निर्जराधिकार, ७ मोक्षाधिकार और ८ चारित्राधिकार । नवमे अधिकारको 'नवाधिकार' तथा 'नवमाधिकार' नामसे ही ग्रन्थ-प्रतियों में उल्लेखित किया है, दसरे अधिकारोंकी तरह उसका कोई खास नाम नहीं दिया; जब कि ग्रन्थ-सन्दर्भकी दृष्टिसे उसका दिया जाना आवश्यक था। वह अधिकार सातों तत्त्वों तथा सम्यक् चारित्र-जैसे आठ अधिकारोंके अनन्तर 'चूलिका' रूपमें स्थित है-आठों अधिकारोंके विपयको स्पर्श करता हुआ उनकी कुछ विशेषताओंका उल्लेख करता है और इसलिए उसे यहाँ 'चूलिकाधिकार' नाम दिया गया है । जैसे किसी मन्दिर-भवनकी चूलिकाचोटी उसके कलशादिके रूपमें स्थित होती है उसी प्रकार 'योगसार-प्राभृत' नामक ग्रन्थभवनकी चूलिका-चोटीके रूपमें यह नवमा अधिकार स्थित है अतः इसे 'चलिकाधिकार' कहना समुचित जान पड़ता है। ग्रन्थके 'परिशिष्ट' अधिकाररूपमें भी इसे ग्रहण किया जा सकता है। इन अधिकारोंमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले और योगको समझने के लिए अत्यावश्यक जिन विषयोंका प्रतिपादन हुआ है वे अपनी खास विशेषता रखते हैं और उनकी प्रतिपादन शैली बड़ी ही सुन्दर जान पड़ती है-पढ़ते समय जरा भी मन उकताता नहीं, जिधरसे और जहाँसे भी पढ़ो आनन्दका स्रोत बह निकलता है, नयी-नयी अनुभूतियाँ सामने आती हैं, बार-बार पढ़नेको मन होता है और तृप्ति नहीं हो पाती। यही कारण है कि कुछ समयके भीतर मैं इसे सौ-से भी अधिक बार पूरा पढ़ गया हूँ। इस ग्रन्थका मैं क्या परिचय दूं और क्या महत्त्व ख्यापित करूँ वह सब तो इस ग्रन्थको पढ़नेसे ही सम्बन्ध रखता है। पढ़नेवाले विज्ञ पाठक स्वयं जान सकेंगे कि यह ग्रन्थ जैनधर्म तथा अपने आत्माको समझने और उसका उद्धार करनेके लिए कितना अधिक उपयोगी है, युक्तियुक्त है और बिना किसी संकोचके सभी जैन-जैनेतर विद्वानोंके हाथोंमें दिये जानेके योग्य है; फिर भी मैं यह बतलाते हए कि ग्रन्थकी भाषा अच्छी सरल संस्कृत है, कृत्रिमतासे रहित प्रायः स्वाभाविक प्रवाहको लिये हुए गम्भीरार्थक है और उसमें उत्तियाँ, उपमाओं तथा उदाहरणोंके द्वारा विषयको अच्छा बोधगम्य किया गया है, संक्षेपसे अपने पाठकोंको इसके अधिकारोंका कुछ विषयपरिचय करा देना चाहता हूँ और वह अधिकार-क्रमसे इस प्रकार है (१) ग्रन्थके आदिमें 'विविक्त' आदि छह विशेषणोंके साथ सिद्ध समूहका स्तवनरूप मंगलाचरण किया गया है और उसका उद्देश्य स्वस्वभावकी उपलब्धि बतलाया हैग्रन्थके निर्माणका भी उद्देश्य इसीमें सम्मिलित है (१)। स्वस्वभावकी उपलब्धि (जानकारी एवं सम्प्राप्ति ) के लिए जीव और अजीवके लक्षणोंको जाननेकी प्रेरणा की है; क्योंकि इन दो प्रकारके ( चेतन-अचेतन ) पदार्थोंसे भिन्न संसारमें तीसरे प्रकारका कोई पदार्थ नहीं-- सभीका इन दोमें अन्तर्भाव है (२)। इन दोनों जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अनुरक्ति तथा आसक्ति न रहकर उसका परिहार बनता है-उसे आत्मद्रव्यसे बहिर्भूत समझा जाता है (६)-अजीवके परिहारसे जीवकी अपनेमें लीनता घटित होती है, आत्मलीनतासे राग-द्वेषका क्षय होता है, राग-द्वेषके क्षयसे कर्मोके आश्रयकाआस्रव-बन्धका-छेद होता है और कर्माश्रयके छेदसे निर्वाणका समागम (मुक्तिलाभ ) होता है, यही उक्त दोनों तत्त्वोंको वास्तविक जानकारीका फल है (३, ४)। इसके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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