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________________ २१८ योगसार-प्राभूत [ अधिकार ९ 'जिसने इन्द्रियोंको अपने विषयसे अलग किया है और जो विषयोंकी स्मृतिको भी रोके रखता है-पूर्व भोगे गये भोगोंका कभी स्मरण नहीं करता और न उन्हें फिरसे भोगनेकी इच्छा ही करता है-वह जीव इस लोक तथा परलोकमें सदा सुखी होता है।' ___ व्याख्या-यहाँ उस जीवको इस लोक तथा परलोकमें सदा सुस्थित एवं सुखी बतलाया है जो अपनी इन्द्रियोंको उनके विषयसे अलग ही नहीं रखता किन्तु पूर्व में भोगे तथा आगे को भोगे जानेवाले विषयोंका स्मरण भी नहीं करता। भोगको भोगता हुआ कौन बन्धको प्राप्त होता है कौन नहीं ? रागी भोगमभुञ्जानो बध्यते कर्मभिः स्फुटम् । विरागः कर्मभिर्भोगं भुजानोऽपि न बध्यते ॥६॥ 'जो रागी है वह भोगको न भोगता हुआ भी सदा कोंसे बँधता है और जो वीतरागी है वह भोगको भोगता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधता, यह सुनिश्चित है।' व्याख्या-यहाँ पिछले ६६वें पद्यके विषयको कुछ स्पष्ट किया गया है और यह बतलाया गया है कि भोगका न भोगनेवाला यदि भोगोंमें राग रखता है तो वह अवश्य कर्म से बन्धको प्राप्त होता है और जो भोगको भोगता हुआ भी उसमें राग नहीं रखता--किसी मजबूरी, अशक्ति अथवा परवशताके कारण उसे भोगता है-वह कर्म बन्धसे अलिप्त रहता है। विषयोंको जानता हुआ ज्ञानी बन्धको प्राप्त नहीं होता विषयं पञ्चधा ज्ञानी बुध्यमानो न वध्यते । त्रिलोकं केवली किं न जानानो बध्यतेऽन्यथा ॥६६॥ 'जो ज्ञानी है वह पाँच प्रकारके इन्द्रिय-विषयको जानता हुआ भी बन्धको प्राप्त नहीं होता । अन्यथा त्रिलोकको जाननेवाला केवलज्ञानी बन्धको क्यों नहीं प्राप्त होता ?-यदि विषयोंको जाननेसे वन्ध हुआ करता तो केवली भगवान भी बन्धको प्राप्त होता ।' । व्याख्या-यहाँ इस बातको एक सुन्दर उदाहरण-द्वारा स्पष्ट किया गया है कि 'पाँचों इन्द्रियों के विषयोंको जानने मात्रसे कोई ज्ञानी बन्धको प्राप्त नहीं होता।' यदि विषयोंको जानने मात्रसे भी बन्धकी प्राप्ति हुआ करती तो तीन लोकके ज्ञाता केवली भगवान् भी बन्धको प्राप्त हुआ करते । परन्तु ऐसा नहीं है अतः विषयोंको जानने मात्रसे बन्धकी प्राप्ति नहीं होती, बन्धकी प्राप्तिमें कारण तद्विषयक राग-द्वेषादि भाव है। वह यदि नहीं तो बन्ध भी नहीं। और इसलिए पिछले जिन पद्यों ( ६५ आदि ) में भोगोंकी स्मृतिका उल्लेख है वह मात्र ज्ञानात्मक स्मृति न होकर रागात्मक स्मृति है, इसीसे उसे दूपित ठहराया है। महामूढ़ इन्द्रिय-विषयोंको न ग्रहण करता हुआ भी बन्धकर्ता विमूढो नूनमक्षार्थमगृह्णानोऽपि बध्यते । एकाक्षाद्या निवध्यन्ते विषयाग्रहिणो न किम् ॥७०॥ 'जो विमूढ़ है-विवेकहीन महा अज्ञानी है-वह निश्चयसे इन्द्रिय-विषयको ग्रहण न करता हुआ भी बन्धको प्राप्त होता है। (ठीक है) एकेन्द्रियादिक जीव 'जो (स्वभिन्न ) विषयोंको ग्रहण करनेवाले नहीं वे क्या बन्धको प्राप्त नहीं होते ?-होते ही हैं।' व्याख्या-पिछले पद्य में विषयोंको जानमेवाले ज्ञानीकी बात कही गयी है, यहाँ उस महा अज्ञानीकी बातको लिया गया है जो विषयोंको कुछ जानता तथा समझता ही नहीं, तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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