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________________ पद्य ५४-६०] चूलिकाधिकार २१५ 'सहकारिताके साथ कुम्भको करता हुआ भी कुम्भकार जिस प्रकार कभी कुम्भरूप नहीं होता, उसी प्रकार सहकारिताके साथ कषायादिको करता हुआ भी यह जीव कभी कषायादिरूप नहीं होता। व्याख्या-यहाँ यदि कोई यह आशंका करे कि कषायों आदिको करता हुआ जीव तो कषायादिमय हो जाता है--कषायादि उसका स्वभाव बन जाता है-तब कषायोंका छूटना कैसे बन सकता है ? तो उसके समाधानमें ही इन दोनों पद्योंका अवतार हुआ जान पड़ता है । इनमें स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार सहकारीरूपसे कुम्भको बनाता हुआ कुम्हार किसी तरह कुम्भरूप नहीं हो जाता उसी प्रकार यह जीव भी सहाकारीरूपसे कपायोंको करता हुआ कभी भी कपायादिके साथ तादात्म्य-सम्बन्धको प्राप्त कषायादिरूप नहीं हो जाता। कषायादि जितने परिणाम हैं वे सब जीवकी चेतनाको निमित्तभूत करके कम के द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं, यह बात पिछले ३९वें पद्यमें बतलायी जा चुकी है। इसलिए कषायकी उत्पत्तिमें जीव निमित्त कारण है-उपादान कारण नहीं, उपादान कारण द्रव्यकर्मरूप पुद्गल है और इसीलिए कषायोंको 'पौद्गलिक' कहा गया है। कुम्भकार यदि कुम्भ के निर्माणमें अपना सहयोग न दे तो कुम्भका निर्माण नहीं होता, मिट्टी उसे सहयोगके लिए बाध्य नहीं करती । इस तरह कषायका उदय आनेपर यदि जीव उसके साथ सहयोग न करे--राग-द्वेषादिरूप परिणत न हो-तो नये कषाय कर्मका उत्पाद नहीं होता और कर्मका उदय जीवको कषायकर्म करनेके लिए बाध्य नहीं करता, वह उसको करने न करने में स्वतन्त्र है. तभी वह कषायोंके बन्धनोंको दूर करने में समर्थ हो सकता है और इसीसे उसे कपायरूप परिणत न होनेका उपदेश दिया जाता है । कषायोंका जीवके साथ तादात्म्य हो जानेपर तो फिर कभी भी उनसे छुटकारा नहीं हो सकता और न मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है। और इसलिए जीवका कषायोंकी उत्पत्तिमें कुम्भकारकी तरह सहकारी निमित्तरूप-जैसा सम्बन्ध है उपादान कारण के रूपमें नहीं, यह भले प्रकार समझ लेना चाहिए। सर्व कर्मोका कर्ता होते हुए कौन निराकर्ता होता है यः कर्म मन्यते कर्माकर्म वाकर्म सर्वथा । स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते ।।५६।। 'जो कर्मको सर्वथा कर्म और अकर्मको सर्वथा अकर्मके रूपमें मानता है-कर्मको अकर्म और अकर्मको कर्म समझनेकी कभी भूल नहीं करता-वह सर्वकर्मोका कर्ता होते हुए भी ( एक दिन ) उनका निराकर्ता-उन्हें त्याग करनेवाला हो जाता है।' व्याख्या-जो कर्म-अकर्मका ठीक स्वरूप समझता है और उस स्वरूपके विपरीत कभी उन्हें अपनी श्रद्धाका विषय नहीं बनाता वह कर्मके करने तथा अकर्मको छोड़नेमें रागद्वेप-रूपसे प्रवृत्त नहीं होता-सदा उनमें अनासक्त बना रहता है । और इसलिए सब कर्मोका कर्ता होते हुए भी वह एक दिन उन्हें छोड़ने में समर्थ होता है अथवा अनासक्ति के कारण कर्मके बन्धको प्राप्त नहीं होता। विषयस्थ होते हुए भी कौन लिप्त नहीं होता विषयविषयस्थोऽपि निरासङ्गो न लिप्यते । कर्दमस्थो विशुद्धात्मा स्फटिकः कर्दमैरिव ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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