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________________ २१३ पद्य ४८-५३] चूलिकाधिकार २१३ युक्त भावके साथ आत्माको स्फटिक सम तन्मयता 'येन येनैव भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तन्मयस्तत्र तत्रापि विश्वरूपो मणिर्यथा ॥५१॥ 'यह यन्त्रवाहक जीवात्मा जिस-जिस भावके साथ युक्त होता है उस-उस भावके साथ वहाँ तन्मय हो जाता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि विश्वरूपधारी स्फटिक मणि ।' । व्याख्या-'यन्त्रवाहक' शब्द देहधारी जीवात्माके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है जो कि देहका संचालन करता है और जिसके चले जानेपर देह अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता। चूँकि देह एक यन्त्रके-कल अथवा मशीनके समान है। यह जीवकी एक खास संज्ञा है जिसकी कोशोंमें आमतौरपर उपलब्धि नहीं होती । और 'विश्वरूप' संज्ञा यहाँ स्फटिकमणि को दी गयी है, क्योंकि वह विश्वके सभी पदार्थोके रंगरूपमें परिणत होनेकी योग्यता रखता है । इस स्फटिकके उदाहरण-द्वारा जीवात्माकी पर पदार्थके साथ तन्मयताकी-तद्रप परिणमनकी-बातको स्पष्ट किया गया है। जिस प्रकार स्फटिकमणि जिस-जिस रंग रूपकी उपाधिके साथ सम्बन्ध करता है उस-उस रंग रूपकी उपाधिके साथ तन्मयता ( तद्र पता) को प्राप्त होता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी आत्माको जिस भावके साथ जिस रूपमें ध्याता है उसके साथ वह उसी रूप तन्मताको प्राप्त होता है। इससे विवक्षित तन्मयता स्पष्ट होती है, जो कि तादात्म्य-सम्बन्धके रूपमें नहीं है । आत्माको आत्मभावके अभ्यासमें लगाना आवश्यक 'तेनात्मभावनाभ्यासे स नियोज्यो विपश्चिता। येनात्ममयतां याति निवृत्यापरभावतः ।।५२॥ 'चूंकि आत्मा परभावसे निवृत होकर ही आत्मरूपताको प्राप्त होता है इसलिए विद्वान्के द्वारा आत्मा ( सदा ) आत्मभावनाके अभ्यासमें लगानेके योग्य है।' व्याख्या-आत्माके उक्त तन्मयतारूप परिणाम-स्वभावकी दृष्टिसे यहाँ विद्वान्का कर्तव्य परभावकी भावनाको छोड़कर अपनेको आत्मभावनाके अभ्यास में लगानेका बतलाया गया है, जिससे आत्मामें तन्मयताकी उपलब्धि-वृद्धि हो सके। आत्मभावनाके अभ्यासको जितना अधिक बढ़ाया जायेगा, परभावोंसे उतना ही छुटकारा होता जायेगा। और परभावों ( पदार्थो) में जितना अधिक मनको लगाया जायेगा उतना ही आत्मभावनाका अभ्यास दूर होकर आत्मामें तन्मयताको प्राप्त करना दुर्लभ हो जायेगा। अतः पर-पदार्थोंसे सम्बन्ध कम करके आत्मभावनाके अभ्यासको बढ़ाना ही श्रेयस्कर ( कल्याणकारी) है । कर्ममलसे पूर्णतः पृथक् हुआ आत्मा फिर उस मलसे लिप्त नहीं होता युज्यते रजसा नात्मा भूयोऽपि विरजीकृतः। पृथक्कृतं कुतः स्वर्ण पुनः किट्टेन युज्यते ॥५३।। १. जेण सरूवि झाइयइ अप्पा एह अणंतु । तेण सरूवि परिणवह जह फलिहउ-मणिमंतु ।।-परमात्म प्रकाश २-१७३ । येन भावेन यद्रपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥-तत्त्वानु० १९१ । येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा । ज्ञानार्णव, योगशास्त्र । २. मु येनात्मभावनाभ्यासे । ३. मु तेनात्ममयतां । ४. मु कीटेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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