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________________ पद्य ४३-४७] चूलिकाधिकार २११ है और जिसके सद्भावमें सब कुछ उद्योतरूप हैं तथा अन्धकार भी उद्योतके रूपमें परिणत हो जाता है। इसी परं ज्योतिका जयघोष करते हुए श्री अमृतचन्द्राचार्यने लिखा है कि इस परं ज्योतिमें सारी पदार्थमालिका-जीवादि पदार्थोंकी पूर्ण सृष्टि-अपनी समस्त त्रिकालवर्तीअनन्त पर्यायोंके साथ युगपत् (एक साथ ) दर्पण तलके समान प्रतिबिम्बित होती है तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः। दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ-मालिका यत्र ॥१॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय स्वस्वभाव में स्थित पदार्थोंको कोई अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं सवें भावाः स्वभावेन स्वस्वभाव-व्यवस्थिताः । न शक्यन्तेऽन्यथाकतु ते परेण कदाचन ॥४६॥ 'सब द्रव्य स्वभावसे अपने-अपने स्वरूपमें स्थित हैं वे परके द्वारा कभी अन्यथारूप नहीं किये जा सकते।' व्याख्या-यहाँ एक बहुत बड़े अटल सिद्धान्तकी घोषणा की गयी है और वह यह कि 'सब द्रव्य सदा स्वभावसे-द्रव्यदृष्टिसे-अपने-अपने स्वरूपमें व्यवस्थित रहते हैं, उन्हें कभी कोई दूसरा द्रव्य अन्यथा करनेमें-स्वभावसे च्युत अथवा पररूप परिणत करने में समर्थ नहीं होता। मिलनेवाले परद्रव्योंसे आत्माको अन्यथा नहीं किया जा सकता नान्यथा शक्यते कतुं मिलद्भिरिव निर्मलः। आत्माकाशमिवामूतः परद्रव्यरनश्वरः ॥४७॥ जिस प्रकार आकाश, जो कि स्वभावसे निर्मल, अमूर्त तथा अनश्वर है, मिलनेवाले परद्रव्योंके द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार निर्मल आत्मा, जो कि आकाशके समान अमूर्तिक और अविनश्वर है परद्रव्योंके मिलापसे अन्यथा-स्वभावच्युत रूप-नहीं किया जा सकता-जड़ (अचेतन ) आदि पदार्थोके सम्बन्धसे जड़ आदि रूप परिणत नहीं होता।' व्याख्या-यहाँ पिछली बातको एक उदाहरणके द्वारा स्पष्ट किया गया है और वह उदाहरण है निर्मल एवं अमूर्तिक आकाशका । आकाशमें सर्वत्र परद्रव्य भरे हुए हैं; सबका आकाशके साथ सम्बन्ध है; परन्तु वे सब मिलकर भी आकाशको उसके स्वभावसे च्युत करने, उसकी निर्मलता तथा अमूर्तिकताको नष्ट करने, उसे अनश्वरसे नश्वर बनाने अथवा अपने रूप परिणत करने में कभी समर्थ नहीं होते। उसी प्रकार निर्मल अमूर्तिक आत्मा भी परद्रव्योंसे घिरा हुआ है, जड़ कर्मों के साथ सम्बन्धको प्राप्त है, परन्तु कोई भी परद्रव्य अथवा सारे परद्रव्य मिलकर भी उसको वस्तुतः अपने स्वभावसे च्युत करने--चेतनसे अचेतन-जड़, अमूर्तिकसे मूर्तिक, निर्मलसे समल, अनश्वरसे नश्वर बनानेमें कभी समर्थ नहीं होते। १. न्या कथंचन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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