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________________ पद्य ३६-४२] चूलिकाधिकार २०९ व्याख्या-यहाँ रागादि रूप दूसरे विकारोंको लिया गया है और उनके विषयमें बतलाया गया है कि वे भी जीवके वास्तविक परिणाम नहीं हैं। किन्तु कपायरूप कल्मषकी उपाधिसे उत्पन्न स्फटिकके परिणामोंके समान समझना चाहिए, जो स्फटिकके वास्तविक परिणाम नहीं होते। जीवके कषायादिक परिणामोंकी स्थिति परिणामाः कषायाद्या निमित्तीकृत्य चेतनाम् । मृत्पिण्डेनेव कुम्भाद्यो जन्यन्ते कर्मणाखिलाः ॥३६॥ 'जीवके कषायादिक जितने परिणाम हैं वे सब चेतनाको निमित्तभूत करके कर्मके द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार कि कुम्भकारका निमित्त पाकर मिट्टीके पिण्ड-द्वारा घटादिक उत्पन्न किये जाते हैं।' व्याख्या-यहाँ कषायादि परिणामोंकी उत्पत्तिमें मूल कारण कर्मको और निमित्त कारण जीवकी चेतनाको बतलाया है, उसी प्रकार जिस प्रकार घटादिकी उत्पत्तिमें मूल ( उपादान ) कारण मिट्टीका पिण्ड और निमित्त कारण कुम्भकार (कुम्हार ) होता है। कषाय परिणामोंका स्वरूप आत्मनो ये परीणामाः मलतः सन्ति कश्मलाः । सलिलस्येव कल्लोलास्ते कषाया निवेदिताः ॥४०॥ 'आत्माके जो परिणाम मलके निमित्तसे मलिन होते हैं वे जलकी कल्लोलोंकी तरह 'कषाय' कहे गये हैं।' व्याख्या-जिन कपायोंका पिछले पद्यमें उल्लेख है उनका इस पद्यमें स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया गया है कि आत्माके जो परिणाम (रागादि) मलके निमित्तसे मलिन-कसैले होते हैं उन्हें 'कषाय' कहते हैं। उनकी स्थिति जलमें कल्लोलोंके समान होती है । कालुष्य और कर्म में से एकके नाश होनेपर दोनोंका नाश कालुष्याभावतोऽकर्म कालुष्यं कमतः पुनः । एकनाशे द्वयोर्नाशः स्याद् बीजाङ्कुरयोरिव ॥४१॥ 'कर्मसे ( आत्मामें ) कलुषनाको उत्पत्ति और कलुषताके अभावसे कर्मका अभाव होता है। बीज और अंकुरको तरह एकका नाश होनेपर दोनोंका नाश बनता है।' __व्याख्या-जिस मलका पिछले पद्यमें उल्लेख है उसे यहाँ 'कर्म' बतलाया है, उसीसे कलुषताकी उत्पत्ति होती है और कलुषताका अभाव होनेपर कर्म नहीं रहता, इससे यह नतीजा निकला कि कर्म और कलुषता इन दोनोंमें-से किसीका भी नाश होनेपर दोनोंका नाश हो जाता है; जैसे बीज का नाश होनेपर अंकुरोत्पत्ति नहीं बनती और अंकुरका नाश हो जानेपर उससे बीजोत्पत्ति घटित नहीं होती। कलुषताका अभाव होनेपर परिणामी स्थिति यदास्ति कलुपा(ल्मषा)भावो जीवस्य परिणामिनः । परिणामास्तदा शुद्धाः स्वर्णस्येवोत्तरोत्तराः ॥४२॥ २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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