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________________ १९८ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ९ . चैतन्यको आत्माका निरर्थक स्वभाव माननेपर दोषापत्ति निरर्थक-स्वभावत्वे ज्ञानभावानुषङ्गतः । न ज्ञानं प्रकृतेधर्मश्चेतनत्वानुषङ्गतः ॥३॥ प्रकृतेश्चेतनत्वे स्यादात्मत्वं दुर्निवारणम् । ज्ञानात्मकत्वे चैतन्ये नैरर्थक्यं न युज्यते ॥४॥ 'यदि चैतन्यको आत्माका निरर्थक स्वभाव माना जाय-सार्थक स्वभाव न मानकर प्रकृतिजनित विभाव स्वीकार किया जाय-तो प्रकृतिके ज्ञानत्वका प्रसंग उपस्थित होता है और ज्ञान प्रकृतिका धर्म है नहीं; क्योंकि ज्ञानको प्रकृतिका धर्म माननेपर प्रकृतिके चेतनत्वका प्रसंग उपस्थित होता है। और प्रकृतिके यदि चेतनत्व माना जाये तो आत्मत्व मानना भी अवश्यंभावी होगा। अतः चैतन्य ज्ञानात्मक होनेपर उसके निरर्थकपना नहीं बनता।' व्याख्या-पिछले पद्यमें चैतन्यके निरर्थक न होनेकी जो बात कही गयी है उसीका इन दोनों पद्योंमें निरर्थक स्वभाव नामके विकल्पको लेकर स्पष्टीकरण किया गया है। चैतन्यको आत्माका निरर्थक स्वभाव माननेका अर्थ यह होता है कि चैतन्य आत्माका सार्थक (स्वकीय ) स्वभाव न होकर उसका विभाव परिणाम है। कोई भी विभाव परिणाम परके निमित्त बिना नहीं होता। आत्माके विभाव परिणामका कारण पौद्गलिक कर्म होता है, जिसे प्रकृति भी कहते हैं। विभाव परिणाम जब चैतन्यरूप है तब उसकी जननी प्रकृति भी ज्ञानरूप ठहरती है। परन्तु ज्ञान प्रकृतिका धर्म नहीं है। उसे प्रकृतिका धर्म माननेपर प्रकृतिके चेतनपनेका प्रसंग उपस्थित होता है, जिसे सांख्यमतावलम्बियोंने भी माना नहीं। यदि प्रकृतिके चेतनधर्मका सद्भाव माना जायेगा तो उसको आत्मा ( पुरुष ) मानना अनिवार्य हो जायेगा क्योंकि सांख्योंने पुरुष आत्माको चेतन रूपमें स्वीकार किया है और प्रकृतिको जडरूपमें । इस मान्यतासे उनके मतमें विरोध उपस्थित होगा। अतः चैतन्यके स्वभावसे ज्ञानरूप होनेपर निरर्थकपना कुछ नहीं बनता। ज्ञान आत्माका स्वभाव होनेसे उसमें निरर्थकपनेकी संगति नहीं बैठती। ऐसी स्थितिमें सांख्योंकी उक्त मान्यता सदोष ठहरती है। सत्का अभाव न होने से मुक्तिमें आत्माका अभाव नहीं बनता नाभावो मुक्त्यवस्थायामात्मनो घटते ततः । विद्यमानस्य भावस्य नाभावो युज्यते यतः ॥५॥ 'चुंकि विद्यमान भावका--सत्का-(कभी ) अभाव नहीं होता इसलिए मुक्ति-अवस्थामें आत्माका अभाव (भी) घटित नहीं होता।' __व्याख्या--जो लोग बौद्धमान्यताके अनुसार मुक्ति अवस्थामें आत्माका प्रदीप निर्माणके समान अभाव मानते हैं उन्हें लक्ष्य करके यहाँ कहा गया है कि मुक्ति अवस्था में आत्माका अभाव नहीं होता; क्योंकि आत्मा सत्स्वरूप है, जो वस्तु सत्रूप होती है उसका कभी नाश नहीं होता' -भले ही उसकी पर्यायोंमें परिवर्तन होता रहे। १.मु प्रकृतेश्चेतनत्वं । २. मु ज्ञानात्मकेन । ३. आ, ज्या घटते यतः । ४. आ, व्या युज्यते ततः । ५. नेवासतो जन्म सतो न नाशः ।-समन्तभद्र । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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