SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ योगसार-प्राभृत [अधिकार ८ चक्रवर्ती के साथ आये हुए कुछ म्लेच्छ राजादिक, जिन्हें जिनदीक्षाके योग्य बतलाया गया है। जिनलिंग-ग्रहणमें बाधक व्यङ्ग कुल-जाति-वयो-देह-कृत्य-बुद्धि-क्र धादयः । नरस्य कुत्सिता व्यङ्गास्तदन्ये लिङ्गयोग्यता ॥५२॥ (जिनलिंगके ग्रहणमें ) कुकुल, कुजाति, कुवय, कुदेह, कुकृत्य, कुबुद्धि और कुक्रोधादिक, ये मनुष्यके जिनलिंग-ग्रहणमें व्यंग है, भंग हैं अथवा बाधक हैं। इनसे भिन्न सुकलादिक लिंग ग्रहणको योग्यताको लिये हुए हैं।' व्याख्या-यहाँ जिनलिंगके ग्रहणमें अयोग्यताके द्योतक कारणोंको व्यंगके रूपमें उल्लेखित किया गया है, जिसके लिए प्राकृतमें 'भंग' शब्दका प्रयोग पाया जाता है। 'कुत्सिताः' विशेषण कुल, जाति, वय, देह, कृत्य, बुद्धि और क्रुधादिक सबके लिए लागू किया गया है, जो खोटे, बुरे, निन्दनीय तथा अप्रशस्त अर्थका वाचक है और इसलिए उसको यथायोग्य सबपर लगा लेना चाहिए। जो कुल जाति आदि उक्त विशेषणोंके पात्र हैं उनमें जिनलिंगके ग्रहणकी योग्यता नहीं है। इसके विपरीत अकुत्सित विशेषणके जो पात्र हैं उन सबमें जिनलिंगके ग्रहणकी योग्यता समझनी चाहिए। अतः दीक्षाचार्यको इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर जो जिन-दीक्षाका पात्र समझा जाय उसे ही जिनदीक्षा देनी चाहिए-अपनी कुलवृद्धि या मोह-लोभादिकके वश होकर नहीं। व्यंगका वास्तविक रूप 'येन रत्नत्रयं साधो श्यते मुक्तिकारणम् । स व्यङ्गो भण्यते नान्यस्तत्त्वतः सिद्धिसाधने ॥५३॥ 'वास्तवमें जिसके कारण साधुका मोक्षमें कारणीभूत रत्नत्रय धर्म नाशको प्राप्त होता है वह व्यंग ( भंग ) कहा गया है, अन्य कोई सिद्धिके साधनमें बाधक नहीं है।' व्याख्या-यहाँ साररूपमें अथवा निश्चयनयकी दृष्टिसे व्यंग (भंग) का कथन किया गया है और उसे ही वास्तवमें व्यंग बतलाया है, जिससे साधुके सिद्धि-मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-बान-चारित्र) का नाश होता हो अथवा ठीक पालन न बनता हो। दूसरा और कोई व्यंग इस विषयमें वस्तुतः नहीं है । सम्भव है इसी दृष्टिको लेकर जयसेनाचार्यने यथा योग्य सत् शूद्रादिको भी जिन-दीक्षाका पात्र लिखा हो। १ म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशङ्कितव्यम् । दिगविजयकाले चक्रवतिना सह आर्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यानां चक्रवर्त्यादिपरिणोतानां गर्भेषत्पत्रस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तथा जातीयदीक्षाहत्त्वे प्रतिषेधाभावात् ॥"-लब्धिसार टीका गाथा १९३ । २. जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहि णिद्दिट्ठो। सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणा अरिहो ॥३-२५॥ -प्रवचनसार । ३. आ नश्यते, आद्वि नाश्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy