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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ७ व्याख्या - यहाँ ध्यान किये गये विविक्तात्मा के माहात्म्यको चिन्तामणि और कल्पवृक्षसे भी अधिक व्यक्त किया गया है, क्योंकि वह स्वयं अचिन्तित और अकल्पित पदार्थको प्रदान करता है, जबकि चिन्तामणि चिन्तित और कल्पवृक्ष कल्पित पदार्थों को ही प्रदान करते हैं । १४८ उक्त ध्यानसे कामदेवका सहज हनन जन्म-मृत्यु-जरा-रोगा हन्यन्ते येन दुर्जयाः । मनोभू-हनने तस्य नायासः कोऽपि विद्यते ||३७|| 'जिस ध्यानके द्वारा दुर्जय जन्म, जरा, मरण और रोग नाशको प्राप्त होते हैं उसको कामदेवके हननेमें कोई भी श्रम करना नहीं पड़ता - वह तो उससे सहज ही विनाशको प्राप्त हो जाता है ।' व्याख्या - यदि कोई पूछे कि क्या विविक्तात्माका ध्यान कामविकारको दूर करनेमें भी समर्थ होता है तो उसके उत्तर में कहा गया है कि विविक्तात्माके जिस ध्यानसे जन्म, जरा, मरण और रोग जैसे दुर्जय विकार नष्ट हो जाते हैं उसको कामविकारके दूर करनेमें कुछ भी श्रम करना नहीं पड़ता - वह तो स्वतः उसके प्रभावसे दूर हो जाता है । वाद- प्रवादको छोड़कर अध्यात्म-चिन्तनकी प्रेरणा मुक्त्वा वाद-प्रवादाद्यमध्यात्मं चिन्त्यतां ततः । नाविधूते तमःस्तोमे ये ज्ञानं प्रवर्तते ||३८|| 'अतः वाद-प्रवाद आदिको छोड़कर अध्यात्मको- आत्माके परमरूपको - चिन्तित करना चाहिए । अन्धकार समूहके नाश हुए बिना ज्ञान ज्ञेयमें प्रवृत्त नहीं होता । -वाद- प्रवादादि सब अन्धकार हैं, जो कि शुद्धात्माके चिन्तनमें बाधक हैं ।' व्याख्या - जिस वाद-प्रतिवादको छोड़नेकी बात पिछले कुछ पद्यों (३१-३३) में कही गयी है उसको यहाँ फिर से दोहराते हुए उसकी महत्ताको व्यक्त किया गया है - यह बतलाया है कि ध्यानके उक्त माहात्म्यको देखते हुए सब वाद-प्रतिवादादिको छोड़कर, जो कि घ अन्धकारके समान है, अपने शुद्धात्माका चिन्तन करना चाहिए; क्योंकि अन्धकारके दूर हुए बिना ज्ञानकी ज्ञेयमें प्रवृत्ति नहीं होती । विद्वानोंको सिद्धिके लिए सदुपाय कर्तव्य उपेयस्य यतः प्राप्तिर्जायते सदुपायतः । सदुपाये ततः प्राज्ञैर्विधातव्यो महादरः || ३६ || 'चूँकि उपेयकी प्राप्ति समीचीन उपायसे होती है अतः विद्वानोंके द्वारा समीचीन उपाय करनेमें महान् आदर किया जाना चाहिए।' Jain Education International व्याख्या – उपायके द्वारा जो साध्य अथवा प्राप्य हो उसे 'उपेय' कहते हैं और उपेय यहाँ शुद्धात्मा परंब्रह्म विवक्षित है उसकी प्राप्ति के लिए उपायका सच्चा ठीक अथवा यथार्थ होना परम आवश्यक है; अन्यथा - मिथ्या उपायके द्वारा - उपेय की प्राप्ति - शुद्धात्माकी उपलब्धि - नहीं हो सकती । ऐसी स्थिति में जो विद्वान् हैं उन्हें अपनी आत्मसिद्धिके लिए सदा सच्चे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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