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प्रधान सम्पादकीय
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रीति से समझाया गया है। चतुर्थ अधिकार में बन्ध एवं उसके नाना प्रकारों का वर्णन है तथा यह भी समझाया गया है कि कर्मों के पुण्य और पाप रूप बन्धनों से किस प्रकार बचा जा सकता है। पाँचवें अधिकार में संवर तत्त्व के भाव और द्रव्य दोनों रूपों का व्याख्यान है। विषय का वर्णन अत्यन्त उपदेशात्मक है और वह बतलाता है कि सामायिक आदि व्रत आत्मानुभव की साधना में किस प्रकार महाहितकारी सिद्ध होते हैं। छठे अधिकार में द्रव्य-भाव दोनों प्रकार की निर्जरा पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ उत्कृष्ट शैली में समुचित उदाहरणों तथा व्यावहारिक सूचनाओं द्वारा समझाया गया है कि योगी के लिए कर्मों की निर्जरा किस प्रकार सम्भव है। सातवें अधिकार में मोक्ष का स्वरूप बतलाया गया है, यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार ज्ञानी पुरुष आध्यात्मिक ध्यान द्वारा मुक्ति का अनुभवन कर सकता है। आठवें अधिकार में चारित्र अर्थात् जैन मुनि की बाह्य और आभ्यन्तर जीवन-चर्या का वर्णन है। यह विषय हेय और उपादेय का स्पष्टीकरण करते हुए पूर्ण विस्तार से समझाया गया है। नवें अधिकार में स्वानुभव के विविध रूपों का अत्यन्त प्रेरणात्मक रीति से विवेचन है। सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना में ग्रन्थ का प्रामाणिक सार हिन्दी में प्रस्तुत किया है।
कुछ ऐसे अन्य ग्रन्थ भी हैं जिनका शीर्षक यो.सा.प्रा. से मिलता-जुलता है (देखिए जि.र.को., पृ. ३२४ आदि)। उदाहरणार्थ (१) योगिचन्द्र कृत योगसार (अपभ्रंश; मा. दि. जै. ग्रं., क्र. २१, बम्बई, १६२२) तथा परमात्मप्रकाश के पूर्वोक्त संस्करण का परिशिष्ट। (२) योगसारसंग्रह (संस्कृत; गुरुदास कृत; मा.दि.जै.ग्र., ४६, वाराणसी, १६६७)। (३) योगप्रदीप, अज्ञातकर्तृक (जै.सा.वि.मं., बम्बई, १६६०)। किन्तु ये सब अपेक्षाकृत छोटी रचनाएँ हैं। इनमें न तो यो.सा.प्रा. के समान विस्तार (५४० पद्य) पाया जाता है और न उतनी उत्कृष्ट रीति से वर्णित विषयों की समद्धता और विविधता।
यो.सा.प्रा. का स्वरूप, प्रतिपादन शैली तथा विषय कुन्दकुन्द की रचनाओं, विशेषतः समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार से घनिष्ठ साम्य रखते हैं। पण्डित जुगलकिशोरजी ने यो.सा.प्रा. के विषयों के स्पष्टीकरण हेतु जो उद्धरण दिये हैं, उनसे इस बात की पूर्णतः पुष्टि होती है। अमितगति उस परम्परागत श्रुतज्ञान और विचारों से पूर्णतः सुपरिचित हैं जिनका प्रतिपादन कुन्दकुन्द, पूज्यपाद आदि प्राचीन आचार्यों द्वारा किया गया है। उनका संस्कृत भाषा पर पूरा अधिकार है और उनकी ध्यान सम्बन्धी परिस्फूर्तियाँ प्रेरणादायक हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक अभिरुचि रखनेवाले श्रद्धालु पाठकों के लिए यह रचना विशेष आकर्षक है।
यो.सा.प्रा. का यह संस्करण न केवल उसके अत्यन्त धार्मिक विषय के कारण महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इस कारण भी है कि इस ग्रन्थ का हिन्दी में प्रामाणिक व्याख्यान पं. जुगलकिशोर जी जैसे अनुभवी और उत्कृष्ट विचारशील विद्वान द्वारा किया गया है। जैन धर्म विषयक अध्ययन के क्षेत्र में पं. जुगलकिशोर जी का परिचय देने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे अपने जीवन के नव्वे वर्ष पार कर चुके हैं तथा जैन साहित्य, जैन धर्म व जैन सामाजिक समस्याओं विषयक उनकी देन बहुत समृद्ध एवं अर्ध शताब्दी से भी बड़े कालखण्ड में व्याप्त है। उन्होंने यो.सा.प्रा. की व्याख्या सहित अपनी हाल ही की रचनाओं में जैन धर्म के गम्भीर एवं प्रौढ़ ज्ञान का मर्म हम लोगों को प्रदान किया है। अमितगति ने यो.सा.प्रा. में विषयों का जैसा प्रतिपादन किया है उसी की जोड़ का यथोचित एवं सरल हिन्दी व्याख्यान पं. जुगलकिशोर जी द्वारा किया गया है। उन्होंने इस ग्रन्थ को मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला में प्रकाशित करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ को सौंपा अतः प्रधान-सम्पा विशेष आभारी हैं।
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला ने देश और विदेश के प्राच्य विद्वानों की प्रशंसा अर्जित की है तथा भारतीयविद्या सम्बन्धी प्रकाशनों में एक विशेष स्थान प्राप्त किया है। ज्ञानपीठ के संस्थापक-संरक्षक श्री साहू शान्ति प्रसादजी तथा उनकी विदुषी धर्मपत्नी श्रीमती रमादेवीजी के प्रति उनके भारतीय ज्ञान के क्षेत्र में उदारता एवं प्रगतिशील नीति के लिए ग्रन्थमाला के सम्पादक अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इन ग्रन्थों के प्रकाशन में लगातार प्रयत्नशील श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन एवं इनके मुद्रण-प्रकाशन में मुद्रण-स्थान पर ही रहकर सर्वाधिक प्रयासशील डॉ. गोकुलचन्द्र जैन भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
हीरालाल जैन आ.ने. उपाध्ये
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