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प्रधान सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १६६८, अँग्रेजी का भावानुवाद)
पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा हिन्दी अनुवाद और व्याख्या सहित सम्पादित तथा मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला क्र. ३३ के रूप में प्रकाशित प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम योगसार प्राभृत है। इसमें तीन शब्द हैं। योग के संस्कृत में उसके सन्दर्भानुसार अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ पर योग का अर्थ उस शुद्ध मानसिक अवस्था से है जो राग, द्वेष व समस्त विकल्पों से रहित है तथा जो जैनधर्मोक्त तत्त्वों पर एकाग्र है (नियमसार १३७-६) । इसके अन्तर्गत धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान, इन दो ध्यानों का समावेश हो जाता है । यही बात प्रस्तुत ग्रन्थ के एक श्लोक (६, १०) में भली-भाँति व्यक्त की गयी है। दूसरे शब्द सार का अर्थ है किसी बात का वह मौलिक तत्त्व जिसमें बाह्य विचारों का अभाव है । अन्तिम शब्द प्राभृत ( प्राकृत में पाहुड) के भी अनेक अर्थ होते हैं । इनमें से बहुप्रचलित अर्थ है प्रकरण, अर्थात् ऐसी संक्षिप्त और सुव्यवस्थित रचना जिसमें किसी एक विषय का व्याख्यान किया गया हो दूसरा अर्थ है एक ऐसा समुचित साहित्यिक उपहार, जो परमात्मा की उपासना करनेवाले ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत किया गया हो; अथवा ऐसा कोई अन्य सारगर्भित व्याख्यान जो तीर्थंकर अथवा आचार्यों द्वारा दिया गया हो। इस प्रकार यह शब्द उस रचना को प्राचीनता एवं पवित्रता से व्याप्त कर देता है। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के शीर्षक का समग्र रूप से अर्थ हुआ एक ऐसा पवित्र ग्रन्थ जो योग व ध्यान के मूल स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए लिखा गया हो। प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित विषय इस बात को स्पष्टतया सिद्ध करते हैं कि ग्रन्थ का यह नाम कितना सार्थक है जैन साहित्य में ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं जिनके नामों के अन्त में 'सार' या 'प्राभृत' शब्द पाये जाते हैं किन्तु प्रस्तुत रचना के नाम में ये दोनों ही शब्द रखे गये हैं, जिससे ग्रन्थ के महत्त्व एवं वैशिष्ट्य का पता चलता है।
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आचार्य अमितगति तथा उनकी रचनाओं ने जैन समाज से बाहर के भी प्राच्यविद्याविदों का ध्यान सुदीर्घ काल से आकर्षित किया है। उनकी रचनाओं की जो प्राचीन प्रतियाँ इस देश तथा यूरोप में उपलब्ध हैं उनकी सूचना अनेक बार वेबर, पीटरसन, भण्डारकर, ल्यूमन, आफ्रेट जैसे भारतीय व यूरोपीय विद्वानों द्वारा सम्पादित ग्रन्थ- सूचियों में सन् १८८६ से लेकर १६०३ तक प्रकाशित की जा चुकी है। इधर डॉ. बेलनकर का जिनरत्नकोष भण्डारकर शोध संस्थान, पूना से प्रकाशित हुआ है। उसके भी पश्चात् राजस्थान के जैन शास्त्र - भण्डारों की अनेक सूचियाँ प्रकाशित हुई हैं और उनमें भी अमितगति की कुछ रचनाओं के नाम निर्देश पाये जाते हैं। अमितगति द्वारा विरचित मानी जानेवाली रचनाओं में से अधिकांश मुद्रित हो चुकी हैं और उनमें से कुछ का आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। सुभाषितरत्नसन्दोह का काव्यमाला क्र. ८२ (बम्बई, १९०३) में प्रकाशन हुआ था और उसकी प्रस्तावना में भवदत्त शास्त्री का ग्रन्थकार एवं उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में, एक लेख भी था। इसका अध्ययन कर जे. हटेल नामक जर्मन विद्वान् ने अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेख में यह बात प्रकट की कि इस ग्रन्थ का ( जो संवत् १०५० में रचा गया था) संवत् १२१६ में हेमचन्द्र द्वारा रचित योगसार पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसके पश्चात् जर्मन विद्वान् स्मिट् और हटेल द्वारा आलोचनात्मक रीति से सम्पादित एवं जर्मन भाषा में अनुवाद सहित इस ग्रन्थ का प्रकाशन भी कराया गया। इस संस्करण की प्रस्तावना में ग्रन्थकार अमितगति, ग्रन्थ के शब्द चयन एवं व्याकरण सम्बन्धी विशेषता तथा उपयोग में लाये गये प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का विवरण पाया जाता है ( लीपज़िग, १९०५-१९०७) । ल्यूमन ने इस संस्करण के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। इस समस्त सामग्री के आधार पर इस ग्रन्थ का संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर में प्रकाशनार्थ तैयार हो रहा है इसका एक संस्करण श्रीलालजी के हिन्दी अनुवाद सहित हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला, क्रमांक ३ (कलकत्ता, १८१७-१६३८), में प्रकाशित हुआ है।
अमितगति कृत धर्मपरीक्षा का विश्लेषणात्मक अध्ययन एन. मिरोनो द्वारा किया गया है ( लीपज़िग,
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