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________________ पद्य १-६] बन्धाधिकार 'उक्त चार प्रकारके बन्धों में स्वभावका नाम 'प्रकृति', कालको अवधिका नाम 'स्थिति', सुसंक्लूप्तिका नाम 'प्रदेश' और विपाकका नाम अनुभव (बन्ध) है।' व्याख्या-यहाँ चारों प्रकारके बन्धोंका सामान्यतः स्वरूप दिया है और वह यह कि जो पुद्गल कर्मरूप होकर जीवके साथ बन्धको प्राप्त होते हैं उनमें गुण-स्वभावके पड़नेको 'प्रकृतिबन्ध', कबतक सम्बन्धित रहेंगे इस कालकी अवधिको 'स्थितिबन्ध', जीवके प्रदेशों में संश्लेषको 'प्रदेशबन्ध' और फलदानकी शक्तिको 'अनुभागबन्ध' कहते हैं। कौन जीव कर्म बांधता है और कौन नहीं बांधता रागद्वेषद्वयालीढः कर्म वध्नाति चेतनः । व्यापारं विदधानोऽपि तदपोढो न सर्वथा ॥४॥ 'राग और द्वेष दोनोंसे युक्त हुआ चेतन आत्मा कर्मको बाँधता है। जो राग-द्वेषसे रहित है वह व्यापारको-मन-वचन-कायकी क्रियाको-करता हुआ भी सर्वथा कर्मका बन्ध नहीं करता।' व्याख्या-यहाँ बन्धके कारणका निर्देश करते हुए उस जीवात्माको बन्धका कर्ता लिखा है जो राग और द्वेष इन दोसे युक्त है, जो जीवात्मा इन दोसे रहित है वह मन-वचनकायकी कोई क्रिया करता हुआ भी कभी बन्धको प्राप्त नहीं होता। राग और द्वेष इन दोमें सारा कषाय-नोकषाय चक्र गर्भित है-लोभ, माया, हास्य, रति और त्रिधा काम ये राग रूप हैं और क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा (ग्लानि) ये छह द्वेषरूप हैं। मिथ्यादर्शनसे युक्त हुआ राग ही 'मोह' कहलाता है। पूर्वकथनका उदाहरणों-द्वारा स्पष्टीकरण सचित्ताचित्त-मिश्राणां कुर्वाणोऽपि निषदनम् । रजोभिर्लिप्यते रूक्षो न तन्मध्ये चरन् यथा ॥५॥ विदधानो विचित्राणां द्रव्याणां विनिपातनम् । रागद्वेषद्वयापेतो नैनोभिर्बध्यते तथा ॥६॥ "जिस प्रकार चिकनाईसे रहित रूक्ष शरीरका धारक प्राणी धूलिके मध्यमें विचरता और सचित्त अचित्त तथा सचित्ताचित्त पदार्थोंका छेदन-भेदनादि करता हुआ भी रजसे लिप्त-धूलसे धूसरित-नहीं होता है, उसी प्रकार राग-द्वेष दोनोंसे रहित हुआ जीव नाना प्रकारके चेतनअचेतन तथा मिश्र पदार्थोके मध्यमें विचरता और उनका विनिपातन छेदन-भेदनादिरूप उपघात-करता हुआ भी कर्मोंसे बन्धको प्राप्त नहीं होता।' व्याख्या-पिछले पद्यके अन्तमें यह बतलाया है कि राग-द्वेषसे रहित हुआ जीव शरीरादिकी अनेक चेष्टाएँ करता हुआ भी कर्मका बन्ध नहीं करता, उसको यहाँ सचिकनतारहित बिलकुल रूक्ष शरीरधारी मानवके दृष्टान्तसे स्पष्ट किया गया है-जिस प्रकार वह मानव धूलिबहुल स्थानके मध्य में विचरता हुआ और अनेक प्रकारके घात-प्रघातके कार्यों १. रागः प्रेम रतिर्माया लोभं हास्यं च पञ्चधा। मिथ्यात्वभेदयुक सोऽपि मोहो द्वेषः धादिषट् ॥२७॥ -अध्यात्मरहस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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