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________________ ७८ योगसार-प्राभृत [अधिकार ३ व्याख्या-यहाँ सांसारिक सुखके कारण पुण्यको ही नहीं किन्तु दुःखके कारण पापको भी साथ में लेकर कहा गया है कि जो इन पुण्य-पाप दोनोंके वास्तविक भेदको नहीं समझता वह अपने चारित्रसे भ्रष्ट और संसार-परिभ्रमणको बढ़ानेवाला है । पुण्यके प्रतापसे स्वर्गमें जाकर सागरों-पर्यन्त वह इन्द्रिय-सुख भोगते भी रहा, जिसे पिछले पद्यमें अस्थिर, पीड़क, तृष्णावर्धक और पराधीन आदि कहा गया है, तो उससे क्या होगा ? संसार तो बढ़ेगा ही, बन्धनसे कहीं मुक्ति तो नहीं हो सकेगी। यदि वह भी बन्धन ही रहा तो लोहे-सोनेकी बेड़ीकी तरह बन्धनमें विशेषता क्या रही ? दोनों ही प्रकारके बन्धन संसारमें बाँधे रखनेके लिए समर्थ हैं। इसीसे जो शुद्धबुद्धि-सम्यग्दृष्टि हैं वे इन दोनोंमें कोई भेद नहीं समझते । कौन सच्चारित्रका पालनकर्ता हुआ भी कर्मोसे नहीं छूटता पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्त चरन्नपि । वतमानः कषायेन कल्मषेभ्यो न मुच्यते ॥३८॥ 'पापारम्भको छोड़कर सच्चारित्ररूप आचरण करता हुआ भी आत्मा यदि कषायके साथ वर्त रहा है-क्रोध-मान-माया-लोभादिकके वशवर्ती होकर वह आचरण कर रहा है तो वह कर्मो से नहीं छूटता-कषायके कारण, चाहे वह शुभ हो या अशुभ, उसके बराबर कर्मोंका आस्रव-बन्ध होता रहता है।' व्याख्या-हिंसा, झूठ, चोरी आदिकी जिस मनोवृत्तिको ३०वें पद्यमें अव्रत, अचारित्र कहा है वह सब पापरूप है; क्योंकि पापोंसे विरक्तिका नाम 'व्रत' है; जैसा कि मोक्षशास्त्रके "हिंसानुत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम' इस सत्र (७-१) से जाना जाता है। इस पद्यमें, कषाय-जनित कर्मास्रवका उल्लेख करते हुए, यह बतलाया है कि पापोंके आरम्भको छोड़कर सच्चारित्रका अनुष्ठान करता हुआ जीव किसी कषायके साथ-चाहे वह शुभ हो या अशुभयदि वर्त रहा है तो उसका कर्मोके आस्रव-बन्धसे छुटकारा नहीं होता-वह अपने कषायभावके अनुसार बराबर साम्परायिक आस्रवका अर्जन करता रहता है। बन्धका कारण वस्तु या वस्तुसे उत्पन्न दोष ? जायन्ते मोह-लोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुतः । तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुतः ॥३६॥ 'यद्यपि वस्तुके--परपदार्थके-निमित्तसे मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं तथापि कर्मका बन्ध उत्पन्न हुए दोषके कारण होता है न कि वस्तुके कारण-पर-पदार्थ बन्धका कारण नहीं। व्याख्या-यहाँ जिस वस्तुके निमित्तसे आत्मामें काम-क्रोध-लोभादिक दोषोंकी उत्पत्ति होती है उसे आस्रव-बन्धका कारण न बतलाकर उन दोषोंको ही कर्मोके आस्रव-बन्धका कारण बतलाया है। यदि जीवके कषायादि परिणामोंको छोड़कर वस्तु के निमित्तसे ही आस्रवबन्धका होना माना जाय तो फिर किसीका भी बन्धसे छूटना नहीं बन सकता। १. पश्यन्तो जन्मकान्तारे प्रवेशं पुण्य-पापतः । विशेष प्रतिपद्यन्ते न तयोः शुद्धबुद्धयः ।। -योग. प्रा० ४-४०। २. वत्, पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधो त्थि। -समयसार २६५ । ३.,४. आ वस्तुनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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