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________________ पद्य १३-१७ ] आसूवाधिकार ७१ व्याख्या - पिछले पद्य में कषाय सहित जीवके साम्परायिक आस्रवकी बात कही गयी है— कषाय-रहितकी नहीं। इस पद्यमें कषाय-रहित जीवके भी यदि बन्धकारक साम्परायिकआस्रव माना जाय तो उसमें जो दोषापत्ति होती है उसे बतलाया है और वह यह है कि तब किसी भी जीवको कभी भी मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती -- कषायसे भी बन्ध और बिना कषाय के भी बन्ध, तो फिर छुटकारा कैसे मिल सकता है ? नहीं मिल सकता । और यह बात वास्तविकताके भी बिरुद्ध है; क्योंकि जो कारण बन्धके कहे गये हैं उनके दूर होनेपर मुक्ति होती ही है । बन्धका प्रधान कारण कषाय है; जैसा कि इसी ग्रन्थके बन्धाधिकार में दिये हुए बन्धके लक्षणसे प्रकट है ।' एक द्रव्यका परिणाम दूसरेको प्राप्त होनेपर दोषापत्ति नान्यद्रव्य - परीणाममन्य-द्रव्यं प्रपद्यते । स्वा-न्य-द्रव्य-व्यवस्थेयं परस्य ( था ) घटते कथम् ||१६|| 'भिन्न द्रव्यका परिणाम भिन्न द्रव्यको प्राप्त नहीं होता - एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप कभी परिणमन नहीं करता -- यदि ऐसा न माना जाय तो यह स्वद्रव्य-परद्रव्यकी व्यवस्था कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती ।' व्याख्या - प्रत्येक परिणमन अपने-अपने उपादानके अनुरूप होता है, दूसरे द्रव्यके उपा दानके अनुरूप नहीं । यदि एक द्रव्यका परिणमन दूसरे द्रव्यके उपादानरूप होने लगे तो दोनों द्रव्योंमें कोई भेद नहीं रहता । उदाहरणके तौरपर सन्तरेके बीजसे अमरूद और अमरूद के बीजसे सन्तरा भी उत्पन्न होने लगे तो यह सन्तरेका बीज और यह अमरूदका बीज है ऐसा भेद नहीं किया जा सकता और न यह आशा ही की जा सकती है कि सन्तरेका बीज बोनेसे सन्तरेका वृक्ष उगेगा और उसपर सन्तरे लगेंगे । अन्यथा परिणमन होनेकी हालत में उस सन्तरेके बीजसे कोई दूसरा वृक्ष भी उग सकता है और दूसरे प्रकारके फल भी लग सकते हैं, परन्तु, ऐसा नहीं होता, इसीसे एक द्रव्यमें दूसरे सब द्रव्योंका अभाव माना गया है, तभी वस्तुकी व्यवस्था ठीक बैठती है, अन्यथा कोई भी वस्तु अपने स्वरूपको प्रतिष्ठित नहीं कर सकती, तब हम सन्तरेको सन्तरा और अमरूदको अमरूद भी नहीं कह सकते । पांचवीं बुद्धि जिससे कर्मास्रव नहीं रुकता परेभ्यः सुखदुःखानि द्रव्येभ्यो यावदिच्छति । तावदास्रव-विच्छेदो न मनागपि जायते ॥ १७॥ 'जबतक ( यह जीव ) पर द्रव्योंसे सुख-दुःखादिकी इच्छा-अपेक्षा रखता है तबतक आस्रवका विच्छेद - आत्मामें कर्मोंके आगमनका निषेध - तनिक-सा भी नहीं बनता ।' Jain Education International व्याख्या - पर- द्रव्योंसे मुझे सुख-दुःख मिलता है ऐसी समझ जबतक बनी रहती है. तबतक आस्रवका किंचित् भी निरोध नहीं हो सकता । यह एक पाँचवें प्रकारकी बुद्धि है जो कर्माकी हेतुभूत है । १. पुद्गलानां यदादानं योग्यानां सकषायतः । योगतः स मतो बन्धो जीवास्वातन्त्र्यकारणम् ॥ १ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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