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________________ योगसार-प्राभृत [अधिकार ३ आस्रवके विशेष हेतु 'मिथ्याक्त्वमचारित्रं कषायो योग इत्यमी । चत्वारः प्रत्ययाः सन्ति विशेषेणाघसंग्रहे ॥२॥ "मिथ्यावर्शन, असंयम (अव्रत ), कषाय और योग ये चार विशेषरूपसे अघ-संग्रहमेंकर्मोके आत्मप्रवेश तथा ग्रहण-रूप बन्धमें-कारण हैं।' व्याख्या-पिछले पद्यमें सामान्यरूपसे कर्मों के आस्रब-हेतुओंका निर्देश करके इस पद्यमें विशेषरूपसे कर्मोंके आस्रव-हेतुओंका निर्देश किया गया है। विशेषके साथ सामान्य अवश्य रहा करता है अतः पूर्वोक्त सामान्य-हेतुओंके अतिरिक्त जिन विशेष-कारणोंका यहाँ उल्लेख किया गया है उनमें योग तो वही जान पड़ता है जो सामान्य-हेतुओंमें प्रयुक्त हुआ है, तब उसका पुनर्ग्रहण क्या अर्थ रखता है ? इस प्रश्नका समाधान, जहाँतक मैं समझता हूँ, इतना ही है कि कर्मास्रवके विशेष हेतुओंमें जिस योगका ग्रहण है वह कषायानुरंजित योग है, जिस योगकी प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। यहाँ पिछले पद्यमें प्रयुक्त हेतवः' पद्यके स्थानपर 'प्रत्ययाः' पदका और 'दुरित'के स्थानपर 'अघ' शब्द का जो प्रयोग किया गया है वह समानार्थक है। किन्तु 'आस्त्रव' शब्दके स्थान । 'सग्रह' शब्दका प्रयोग किया गया है वह अपनी बिशंपता रखता है, उसमें आस्रव और बन्ध दोनोंका ग्रहण हो जाता है; क्योंकि जिन चार प्रत्ययोंको बिशेषास्रवका कारण बतलाया है वे ही वन्धके भी कारण हैं; जैसा कि समयसारकी पूर्वोद्धृत गाथा १०९ से और भोक्षशास्त्रके निम्न सूत्रसे भी जाना जाता है : मिथ्यादर्शनाविरत-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः ॥८-१॥ मोहको बढ़ानेवाली बुद्धि सचित्ताचित्तयोर्यावद्र्व्ययोः परयोरयम् । आत्मीयत्व-मतिं धत्ते तावन्मोहो विवर्धते ॥३॥ 'यह जीव जबतक चेतन-अचेतनरूप पर-पदार्थोंमें निजत्व-बुद्धि रखता है-परपदार्थीको अपने समझता है तबतक (इसका) मोह-मिथ्यात्व-बढ़ता रहता है।' व्याख्या-आस्रव-हेतुओंमें जिस मिथ्यादर्शनका ऊपर उल्लेख आया है और जिसका कितना ही वर्णन पिछले दो अधिकारोंमें आ चुका है उसीकी आस्रवसे सम्बन्ध रखनेवाली स्थितिको इस पद्यमें तथा अगले कुछ पद्योंमें स्पष्ट किया गया है। इस पद्यमें मिथ्यादर्शनका 'मोह, नामसे उल्लेख करते हुए यह बतलाया है कि जबतक यह जीव पर-पदार्थो में-चाहे वे चेतना-सहित हों या चेतना-रहित-अपनेपनकी बुद्धि रखता है-उन्हें आत्मीय मानता है-तबतक मोह बढ़ता रहता है। १.(क) सामण्णपच्चया खल चउरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥१०९॥-समयसार । (ख) मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति ।-गो० क. ७८६ । २. कषायानुरजितयोगप्रवृत्तिर्लेश्या । कषायोदयरञ्जिता योगप्रवत्तिरिति भावलेश्या।-सर्वार्थसिद्धि । ३. मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते ।-रामसेन, तत्त्वानुशासन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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