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________________ ६३ पद्य ४६-४९] अजीवाधिकार आत्माको द्रव्यकर्मका कर्ता माननेपर दोषापत्ति 'आत्मना कुरुते कर्म यद्यात्मा निश्चितं तदा । कथं तस्य फलं भुङ्क्ते स दत्ते कम वा कथम् ।।४८॥ 'यदि यह निश्चितरूपसे माना जाय कि आत्मा आत्माके द्वारा अपने ही उपादानसेकर्मको करता है तो फिर वह उस कर्मके फलको कैसे भोगता है ? और वह कर्म (आत्माको) फल कैसे देता है ? व्याख्या-यदि पूर्व पद्य-वर्णित सिद्धान्तके विरुद्ध निश्चित-रूपसे यह माना जाय कि आत्मा अपने उपादानसे द्रव्यकर्मका कर्ता है-स्वयं ही ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणत होता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता है कि वह आत्मा उस कर्मफलको कैसे भोगता है और वह कर्म उस आत्माको फल कैसे देता है ? दोनोंके एक ही होनेपर फलदान और फलभोगकी बात नहीं बन सकती। कर्मोदयादि-संभव गुण सब अचेतन कर्मणामुदयसंभवा गुणाः शामिकाः क्षयशमोद्भवाश्च ये । चित्रशास्त्रनिवहेन वर्णितास्ते भवन्ति निखिला विचेतनाः ॥४६॥ 'जो गुण कर्मोके उदयसे उत्पन्न हुए-औदयिक हैं, कर्मोके उपशमजन्य औपशमिक हैं तथा कर्मोके क्षयोपशमसे प्रादुर्भूत हुए मायोपशमिक हैं और जो विविध-शास्त्र-समूहके द्वारा वर्णित हुए हैं-अनेक शास्त्रोंमें जिनका वर्णन है-वे सब चेतना-रहित अचेतन हैं।' व्याख्या-द्रव्यकर्मोके उदय-निमित्तको पाकर उत्पन्न होनेवाले गुण औदायिक भाव, कर्मके उपशम-निमित्तको पाकर उद्भूत होनेवाले गुण औपशमिक भाव और कर्मोके क्षयोपझम-निमित्तको पाकर प्रादुर्भूत होनेवाले गुण क्षायोपशमिक भाव, ये सब द्रव्यकर्मों के चेतनारहित होनेके कारण चेतना-विहीन होते हैं। द्रव्य-कर्मके अस्तित्व बिना जीवके औदयिक, औपशमिक, लायोपशमिक और क्षायिक भाव नहीं बनते-द्रव्यकर्म ही नहीं तब उदयादि किसका ? इसीसे इन भावोंको कर्मकृत कहा गया है। यह व्यवहारनयको दृष्टिसे कथन है। ___ अन्यथा द्रव्यकर्मके उदयादि-निमित्तको पाकर उत्पन्न होनेवाले ये आत्माके विभाव भाव हैं-स्वभाव-भाव तो एक मात्र पारिणामिक भाव है, जो अनादि-निधन तथा निरुपाधि होता है । क्षायिकभाव स्वभावकी व्यक्ति रूप होनेसे अविनाशी होते हुए भी सादि है; क्योंकि कर्म के क्षयसे उत्पन्न होता है और इसीसे कर्मकृत कहा जाता है। १. कम्म कम्मं कुब्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्य फलं भुजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं ॥ पञ्चःस्ति० ६३।। २. कम्मेण विणा उदयं जीवस्स न विज्जदे उपसमं वा । ख इयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं ॥५८।–पञ्चास्ति। ३. पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव । क्षायिकस्तु स्वभाव-व्यक्तिरूपत्वादनन्तोऽ-पि कर्मणः क्षयेनोत्पद्यमानत्वात् सादिरिति कर्मकृत एवोक्तः । -अमृतचन्द्राचार्यः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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