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योगसार-प्राभृत
[अधिकार २ हुए भी वह देहधारियोंके उस पुण्यके उपार्जनमें एक बहुत बड़ी निमित्त कारण होती है जोकि संसारी जीवोंको ऊँचे दर्जेका सुख प्राप्त कराता है, और इसीलिए निरर्थक नहीं कही जाती है ।
स विषयमें-वन्दनाकी उपयोगिताके सम्बन्धमें-शंका करनेकी जरूरत नहीं है। व्यवहारनयकी दृष्टिसे, जो कि समयसारकी पूर्वोक्त गाथा २७ के अनुसार देह और जीवको एक रूपमें ग्रहण करता है, उक्त वन्दनासे चेतनात्मक मुनि वन्दित होते हैं और वह वन्दना वन्दनकर्ताके शुभोपयोगका निमित्तभूत होकर उसे नाना प्रकारके संसार-सुखोंका कारण पुण्य प्रदान करती है। ऐसी स्थितिमें यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनयाश्रित वन्दना सर्वथा मिथ्या तथा व्यर्थ नहीं होती।
अचेतनदेहके स्तुत होनेपर चेतनात्मा स्तुत नही होता 'नाचेतने स्तुते देहे स्तुतोऽस्ति ज्ञानलक्षणः ।
न कोशे वर्णिते नूनं सायकस्यास्ति वर्णना ॥४१॥ 'अचेतन-देहके स्तुत होनेपर ज्ञान-लक्षण आत्मा स्तुत नहीं होता। (ठीक है ) म्यानका वर्णन होनेपर ( उस वर्णनसे) म्यानके भीतर रहनेवाली तलवारका वर्णन नहीं बनता।'
व्याख्या-प्रमत्तादि गुणस्थान-वर्तियोंकी अचेतन देहके रूपमें जो वन्दना-स्तुति की जाती है उससे ज्ञानात्मक मुनि वन्दित-स्तुत नहीं होते, यह बात जो ३२वें पद्यमें कही गयी थी, उसीको यहाँ एक सुन्दर दृष्टान्तके द्वारा स्पष्ट किया गया है। वह है म्यान और तलवारका दृष्टान्त । म्यान लोहेका है या अन्य धातुका है उसपर सोने-चाँदीकी अमुक चित्रकारी है अथवा मखमल आदि चढ़ी है और उसपर सुन्दर सुनहरी-रूपहरी काम हो रहा और मूठ अमुक आकारकी बड़ी ही चित्ताकर्षक है, यह सब म्यानका वर्णन है, इस वर्णनसे तलवारके वर्तनका जैसे कोई सम्बन्ध नहीं है-उसके गुण, स्वभाव आदिका कोई वर्णन नहीं हो जाता-उसी प्रकार अचेतन देहके रंग-विरंगादि विविध रूपसे वर्णित होनेपर भी उसके भीतर रहनेवाले आत्माका वर्णन नहीं होता। और इसलिए देहकी स्तुतिसे देहधारीकी स्तुति नहीं बनती। इसी बातको समयसारमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यने नगर और राजाके दृष्टान्त-द्वारा व्यक्त किया हैलिखा है कि 'नगरका वर्णन होनेपर जिस प्रकार राजाका वर्णन नहीं हो जाता उसी प्रकार देह-गुणोंकी स्तुति होनेपर केवलीके गुणोंकी स्तुति नहीं हो जाती।'
विभिन्नताका एक सिद्धान्त और उससे चेतनकी देहसे भिन्नता यत्र प्रतीयमानेऽपि न यो जातु प्रतीयते । स ततः सर्वथा भिन्नो रसाद् रूपमिव स्फुटम् ॥४२॥ काये प्रतीयमानेऽपि चेतनो न प्रतीयते ।
यतस्ततस्ततो भिन्नो न भिन्नो ज्ञानलक्षणात् ॥४३॥ 'जो जिसमें प्रतीयमान होनेपर भी कभी स्पष्ट प्रतीत नहीं होता वह उससे जिसमें प्रतीयमान हो रहा है सर्वथा भिन्न होता है जैसे रससे रूप । चूँ कि देहमें प्रतीयमान होनेपर भी चेत
१. णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रणो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुन्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥३०॥-समयसार
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