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________________ अनगारभावनाधिकारः] विहारशुद्धि व्याख्याय भिक्षाशुद्धि प्रपंचयन्नाह छट्ठट्ठमभत्तेहिं पारेंति य परघरम्मि भिक्खाए। जमण8 भुंजति य ण वि य पयाम रसाए ॥८१२॥ षष्ठाष्टमभक्तस्तथा दशप्रद्वादशादिवतुर्थश्च पारयति भुंजते परगृहे भिक्षया कृतकारितानुमतिरहितलाभालाभसमानबुद्ध्या, यमनाथ चारित्रसाधनार्थं च क्षुदुपशमनार्थं च यात्रासाधनमात्र भुजते, नवं प्रकामं न च प्रचुरं रसाय, अथवा नैव त्यागं कुर्वति सद्रसार्थ यावन्मात्रेणाहारेण स्वाध्यायादिकं प्रवर्तते तावन्मात्रं गृह्णति नाजीर्णाय बह्वाहारं गृह्णतीति ।।८१२॥ कया शुद्ध्या भुंजत इत्याशंकायामाह णवकोडीपरिसुद्धदसदोसविवज्नियं मलविसुद्ध। भुंजंति पाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि ॥८१३॥ नवकोटिपरिशुद्ध मनोवचनकायः कृतकारितानुमतिरहितं शंकितादिदोषपरिवजितं नखरोमादिचतुर्दशमलविशुद्धं भुंजते पाणिपात्रेण परेण दत्तं परगृहे, अनेन किमुक्तं भवति ? स्वयं गृहीत्वा न भोक्तव्यं, पात्रं च न ग्राह्य , स्वगृहे ममत्वमधिष्ठिते न भोक्तव्यमिति ।।८१३।। विहारशुद्धि का व्याख्यान करके अब भिक्षाशुद्धि का विस्तार करते हैं गाथार्थ–बेला, तेला आदि करके परगृह में भिक्षावृत्ति से पारणा करते हैं, संयम के लिए भोजन करते हैं; किन्तु प्रचुर रस के लिए नहीं ॥१२॥ प्राचारवृत्ति-बेला, तेला, चौला, पाँच उपवास आदि तथा एक उपवास आदि करके परगृह में कृत-कारित-अनुमोदना से रहित तथा लाभ-अलाभ में समान बुद्धि रखते हुए भिक्षा विधि से पारणा करते हैं । चारित्र के साधन के लिए, क्षुधा का उपशमन करने के लिए तथा मोक्ष की यात्रा के साधन मात्र हेतु आहार लेते हैं। किन्तु प्रकाम इच्छानुसार या प्रचुर रस के लिए नहीं लेते हैं। अथवा अच्छे रस के हेतु त्याग नहीं करते हैं। जितने मात्र आहार से स्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति होती है उतना मात्र ही लेते हैं; किन्तु अजीर्ण के लिए बहुत आहार नहीं लेते हैं। किस शुद्धि से आहार लेते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-मन, वचन, काय से गुणित कृत,कारित, अनुमोदना रूप नव कोटि से शुद्ध, दश दोष से रहित, चौदह मलदोष से विशुद्ध परगृह में पर के द्वारा दिये गये आहार को पाणिपात्र में ग्रहण करते हैं ॥१३॥ प्राचारवृत्ति-मन-वचन-काय को कृत-कारित-अनुमोदना से गुणित करने पर नव हुए ऐसे नव प्रकार से रहित, शंकित, मुक्षित आदि अशन के दश दोषों से रहित और नख, रोम आदि चौदह मल दोषों से रहित ऐसे आहार को करपात्र से परगृह में पर के द्वारा दिये जाने पर ग्रहण करते हैं। इससे क्या अभिप्राय हुआ ? मुनि को स्वयं लेकर नहीं खाना चाहिए और पात्र १.क.दिग्गं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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