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गर्भवसतिभ्यो भीताः संतः किमिच्छंतीति
विट्ठपरमट्ठसारा विष्णाणवियक्खणाय बुद्धीए । erraratfare अगग्भवसवी विमग्गति ॥ ८० ॥
ते साधवो दृष्टपरमार्थसाराः संसारस्य शरीरस्य भोगानां च दृष्टं ज्ञातं सारं परमार्थरूपं येस्ते तथाभूताः, विज्ञानेन विचक्षणया बुद्ध्या मतिज्ञानादिना सुष्ठु कुशलतया विज्ञानविचक्षणया बुद्ध्या ज्ञानकृतदीपिका श्रुतज्ञानदीपेन चागर्भवसतिं विशेषेण मृगयंते समीहत इति ॥८०६ ॥
विहतः किं भावयंतीत्याह
भावेति भावणरवा वइरग्गं वीदरागाणं च ।
णाणेण दंसणेण य चरित्तजोएण विरिएण ||८१०॥
भावनायां रता वीतरागाणां ज्ञानदर्शनचरित्रयोगैर्वीर्येण च सह वैराग्यं भावयन्तीति ॥ ८१०॥
तथा
देहे frरावयक्खा पाणं वमदई दमेमाणा । धिविपग्गहपग्गहिदा छिदंति भवस्स मूलाई ॥ ८११॥
[ मूलाचारे
देहे देहविषये निरपेक्षा ममत्वरहिताः, दमरुचय इंद्रियनिग्रहतत्पराः, आत्मानं दमयंतः, धृतिप्रग्रहप्रगृहीता धृतिवलसंयुक्ताः छिदंति भवस्य मूलानीति ॥ ८११ ॥
गर्भवास से भीत होते वे मुनि क्या चाहते हैं ?
गाथार्थ - परमार्थं के सार को जानने वाले वे मुनि विज्ञान से विचक्षण ज्ञान-दीपिकारूप बुद्धि से गर्भ रहित निवास का अन्वेषण करते हैं । ॥ ८० ॥
श्राचारवृत्ति - वे मुनि संसार, पशरीर और भोगों के सार अर्थात् वास्तविक स्वरूप को जान चुके हैं । अतः वे मतिज्ञान आदि रूप अतिशय कुशल बुद्धि से और श्रुतज्ञानरूपी दीपक से गर्भवास - पुनर्जन्म रहित वसति की खोज करते हैं । अर्थात् मोक्ष को चाहते हैं ।
विहार करते हुए वे क्या भावना करते हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ - भावना में रत हुए मुनि वीतरागों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य के साथ वैराग्य की भावना करते हैं । ।। ८१०॥
प्राधार वृत्ति-भावना में लीन में वे मुनि वीतराग तीर्थंकरों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य की भावना करते हैं और उनके साथ-साथ वैराग्य की भावना करते हैं ।
उसी प्रकार से
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गाथार्थ - शरीर से निरपेक्ष, इन्द्रियजयो, आत्मा का दमन करते हुए धैर्य की रस्सी अबलम्बन लेते हुए संसार के मूल का छेदन कर देते हैं ।। ११।।
आचारवृत्ति - वे मुनि शरीर में ममत्व रहित होते हैं, इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर रहते हैं, अपनी आत्मा का निग्रह करते हैं, और धैर्यं के बल से संयुक्त होते हैं । वे ही संसार के कारणों का नाश कर देते हैं । यहाँ तक विहारशुद्धि का वर्णन हुआ।
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