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________________ ६० ] गर्भवसतिभ्यो भीताः संतः किमिच्छंतीति विट्ठपरमट्ठसारा विष्णाणवियक्खणाय बुद्धीए । erraratfare अगग्भवसवी विमग्गति ॥ ८० ॥ ते साधवो दृष्टपरमार्थसाराः संसारस्य शरीरस्य भोगानां च दृष्टं ज्ञातं सारं परमार्थरूपं येस्ते तथाभूताः, विज्ञानेन विचक्षणया बुद्ध्या मतिज्ञानादिना सुष्ठु कुशलतया विज्ञानविचक्षणया बुद्ध्या ज्ञानकृतदीपिका श्रुतज्ञानदीपेन चागर्भवसतिं विशेषेण मृगयंते समीहत इति ॥८०६ ॥ विहतः किं भावयंतीत्याह भावेति भावणरवा वइरग्गं वीदरागाणं च । णाणेण दंसणेण य चरित्तजोएण विरिएण ||८१०॥ भावनायां रता वीतरागाणां ज्ञानदर्शनचरित्रयोगैर्वीर्येण च सह वैराग्यं भावयन्तीति ॥ ८१०॥ तथा देहे frरावयक्खा पाणं वमदई दमेमाणा । धिविपग्गहपग्गहिदा छिदंति भवस्स मूलाई ॥ ८११॥ [ मूलाचारे देहे देहविषये निरपेक्षा ममत्वरहिताः, दमरुचय इंद्रियनिग्रहतत्पराः, आत्मानं दमयंतः, धृतिप्रग्रहप्रगृहीता धृतिवलसंयुक्ताः छिदंति भवस्य मूलानीति ॥ ८११ ॥ गर्भवास से भीत होते वे मुनि क्या चाहते हैं ? गाथार्थ - परमार्थं के सार को जानने वाले वे मुनि विज्ञान से विचक्षण ज्ञान-दीपिकारूप बुद्धि से गर्भ रहित निवास का अन्वेषण करते हैं । ॥ ८० ॥ श्राचारवृत्ति - वे मुनि संसार, पशरीर और भोगों के सार अर्थात् वास्तविक स्वरूप को जान चुके हैं । अतः वे मतिज्ञान आदि रूप अतिशय कुशल बुद्धि से और श्रुतज्ञानरूपी दीपक से गर्भवास - पुनर्जन्म रहित वसति की खोज करते हैं । अर्थात् मोक्ष को चाहते हैं । विहार करते हुए वे क्या भावना करते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ - भावना में रत हुए मुनि वीतरागों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य के साथ वैराग्य की भावना करते हैं । ।। ८१०॥ प्राधार वृत्ति-भावना में लीन में वे मुनि वीतराग तीर्थंकरों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य की भावना करते हैं और उनके साथ-साथ वैराग्य की भावना करते हैं । उसी प्रकार से - Jain Education International गाथार्थ - शरीर से निरपेक्ष, इन्द्रियजयो, आत्मा का दमन करते हुए धैर्य की रस्सी अबलम्बन लेते हुए संसार के मूल का छेदन कर देते हैं ।। ११।। आचारवृत्ति - वे मुनि शरीर में ममत्व रहित होते हैं, इन्द्रियों के निग्रह में तत्पर रहते हैं, अपनी आत्मा का निग्रह करते हैं, और धैर्यं के बल से संयुक्त होते हैं । वे ही संसार के कारणों का नाश कर देते हैं । यहाँ तक विहारशुद्धि का वर्णन हुआ। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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