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________________ वाशानुप्रेनाधिकारः] [ ३७ प्रामाण्यं ख्यापितं तासां स्यात्, बुधजनानां वैराग्यस्य जनन्यो वैराग्यकारिण्योऽनेन रागाभावश्व ख्यापितः श्रुतस्य भवतीति ॥६५॥ अनुप्रेक्षाभावने कारणमाह अणुवेक्खाहिं एवं जो अत्ताणं सदा विभावेदि । सो विगदसव्वकम्मो विमलो विमलालयं लहदि ॥७६६।। एवमनुप्रेक्षाभिरात्मानं यः सदा भावयेद्योजयेत्सः पुरुषो विगतसर्वकर्मा विमलो भूत्वा विमलालयं मोक्षस्थानं लभते प्राप्नोतीति ।।७६६।। द्वादशानुप्रेक्षावसाने कृतकृत्य आचार्यः परिणामशुद्धिमभिदधन्मंगलं फलं वा वान्छश्वाह-- झाणेहि खवियकम्मा मोक्खग्गलमोडया विगयमोहा। ते मे तमरयमहणातारंतु भवाहि लहुमेव ॥७६७॥ य इमा अनुप्रेक्षा भावयित्वा सिद्धि गतास्ते ध्यानः क्षपितकर्माणो मोक्षार्गलच्छेदका विगतचारित्र मोहास्तमोरजोमथना मिथ्यात्वमोहनीयज्ञानावरणादिविनाशकास्तारयन्तु भवात्संसाराच्छीघ्रमेवास्मा. निति ॥७६७॥ पुनरप्यनुप्रेक्षां याचमानः प्राह इनकी प्रमाणता बतायी गयी है। ये भावनाएँ बुधजनों में वैराग्य को उत्पन्न करनेवालो होने से वैराग्य की जननी मानी गयी हैं। इस कथन से श्रुत-जिनागम में, रागाभाव ही ख्यापित किया गया है, ऐसा समझना। अनुप्रेक्षा की भावना करने में कारण बताते हैं गाथार्थ-इन अनुप्रेक्षाओं के द्वारा जो हमेशा आत्मा की भावना करता है वह सर्वकर्म से रहित निर्मल होता हुआ विमलस्थान को प्राप्त कर लेता है ॥७६६।। आचारवृत्ति-इन अनुप्रेक्षाओं के द्वारा जो पुरुष अपनी आत्मा का चिन्तवन करता है वह सर्वकर्मों से रहित निर्मल होकर मोक्षस्थान प्राप्त कर लेता है । द्वादश अनुप्रेक्षा के अन्त में कृतकृत्य हुए आचार्य परिणामशुद्धि को धारणा करते हुए मंगल व फल की चाह करते हैं गाथार्थ-जो ध्यान से कर्म का क्षय करनेवाले हैं, मोक्ष को अर्गला के खोलनेवाले हैं, मोह रहित हैं, तम ओर राज का मंथन करनेवाले हैं, वे जिनेन्द्रदेव हमें संसार से शोन हो पार करें। प्राचारवृत्ति-जो इन अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं वे ध्यान से कर्मों का क्षपण करनेवाले हैं, मोझ के कपाट को अर्गला-सांकल के खोलनेवाले हैं, चारित्रमोह से रहित हो चुके हैं, तम-मिथ्यात्व मोहनोय, रज-ज्ञानावरण आदि कर्म का विनाश करनेवाले हैं। वे महापुरुष इस संसार-सागर से हमें शोघ्र हो तारें। पुनरपि अनुप्रेक्षा की याचना करते हुए कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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