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________________ १४ ] लोकस्वरूपमाह- ओ प्रकट्टिम खलु प्रणाइणिहणो सहावणिप्पण्णो । जीवाजीवहि भुडो णिच्चो तालरुक्खसंठाणो ॥ ७१४॥ tosत्रिमः खलु न केनाऽपि कृतः, खलु स्फुटमेतत्प्रमाणविषयत्वात्, अनादिनिधन आद्यन्तवर्जितः, स्वभावनिष्पन्नो विश्वसारूप्येण स्थितः, जीवाजीवैश्च पदार्थेर्भतः पूर्णः, नित्यः सर्वकालमुपलभ्यमानत्वात्, तालवृक्षसंस्थानस्तालवृक्षाकृतिः, अधो विस्तीर्णः सप्तरज्जुप्रमाणो मध्ये संकीर्ण एकरज्जुप्रमाणः पुनरपि ब्रह्मलोके विस्तीर्णः पंच रज्जुप्रमाण उध्वं संकीणं एकरज्जुप्रमित इति ॥ ७१४ ॥ लोकस्य प्रमाणमाह धमाधम्मागासा गविरागदि जीवपुग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो आगासमदो परमणंतं ॥७१५॥ धर्माधर्मो लोकाकाशं च यावन्मात्रे जीवपुद्गलानां च गतिरागतिश्च यावन्मात्रं तावल्लोकोऽतः परमित उर्ध्वमाकाशं पंचद्रव्याभावोऽनंतमप्रमाणं केवलज्ञानगम्यमिति ।।७१५ ।। पुनरपि लोकस्य संस्थानमित्याह [ मूलाचारे लोक का स्वरूप कहते हैं -- गाथार्थ - निश्चय से यह लोक अकृत्रिम, अनादि-अनन्त, स्वभाव से सिद्ध, नित्य और तालवृक्ष के आकार वाला है तथा जीवों और अजीवों से भरा हुआ है ।। ७१४॥ Jain Education International आचारवृत्ति - यह लोक अकृतिम है, क्योंकि निश्चय से यह किसी के द्वारा भी किया हुआ नहीं है । अतः स्पष्ट रूप से यह प्रमाण का विषय है । अर्थात् इस लोक का या सृष्टि का कर्ता कोई नहीं है जिनागम में यह बात प्रमाण से सिद्ध है । यह आदि और अन्त से रहित होने से अनादि अनन्त है । स्वभाव से ही निर्मित है अर्थात् विश्व स्वरूप से स्वयं ही स्थित है । जीव और अजीव पदार्थों से पूर्णतया भरा हुआ है । नित्य है चूंकि सर्वकाल ही इसकी उप ब्ध हो रही है । तालवृक्ष के समान आकारवाला है अर्थात् नीचे में सात राजू प्रमाण चौड़ा है, मध्य में संकीर्ण एक राजू प्रमाण है, पुनः ब्रह्मलोक में पाँच राजू प्रमाण चौड़ा है और ऊपर में संकीर्ण होकर एक राजू प्रमाण रह गया है । लोक का प्रमाण बताते हैं गाथार्थ - जहाँ तक धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य हैं तथा जीव और पुद्गलों का गमनागमन है वहाँ तक लोक है इसके परे अनन्त आकाश है ।। ७१५|| श्राचारवृत्ति - जितने में धर्म, अधर्म और लोकाकाश हैं और जीवों का व पुद्गलों का गमन आगमन है उतने मात्र को लोक संज्ञा है। इससे परे सभी ओर आकाश है। वहाँ पर पाँच द्रव्यों का अभाव है और वह आकाश अनन्त प्रमाण है, क्योंकि वह केवल ज्ञानगम्य है । यह लोक पुनरपि किसके आकार का है ? सो ही बताते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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