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पर्याप्स्यधिकार: ]
[३८६ प्रदेशनिर्जरां करोति, अन्तर्मुहूर्तेनैकैकस्थितिखण्डकं पातयन्नात्मनः कालाभ्यन्तरे असंख्यातसहस्राणि स्थितिखण्डकानि पातयति, तावन्मात्राणि च स्थितिबन्धापसरणानि करोति, तेभ्यश्च संख्यातसहस्रगुणानुभागखण्डकघातान् करोति, यत एकानुभागखण्डकोत्कीर्णकालादेकस्य स्थितिखण्डकोत्कीर्णकालः सख्यातगुण इति । एवंविध कृत्वानिवृत्तिगुणस्थानम् प्रविश्यानिवृत्तिसंख्यातभागोऽपूर्वकरणविधानेन गमयित्वाऽनिवत्तिकालसंख्यातिभागे शेषे स्त्यानगद्धित्रय-नरकगति-तिर्यग्गत्येकेन्द्रियद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिनरकगतितिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्व्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणसंज्ञकाः षोडशप्रकृतीः क्षपयति । ततोऽन्तमहत्तं गत्वा अप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभान क्रमेण क्षपयति । स एष कर्मप्राभतस्योपदेशः, कषायप्राभूतोपदेशः । पुन: अष्टसु कषायेषु क्षीणेषु पश्चादन्तर्मुहूर्तं गत्वा षोडशकर्माणि द्वादश वा क्षपयत्यत उपदेशो ग्राह्यो द्वावप्यवद्यभीरुभिरिति। ततोऽन्तमुहूत्तं गत्वा चतुर्णा संज्वलनानां नवानां नोकषायाणाम् अन्तरं करोति, सोदयानामन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थिति स्थापयति अनुदयानां समयोनावलिकामात्रां प्रथमस्थिति स्थापयति । ततोऽन्तरं कृत्वाऽन्तमुहूर्तेन नपुंसकवेदं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूतं गत्वा स्त्रीवेदं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा षण्णोकषायाणां वेदं चिरन्तनसत्कर्मणा सह वेदविद्विचरमसमये युगपत् क्षपयति । तत आवलीमात्रकालं गत्वा वेदं क्षपयति,
काल के भीतर ही असंख्यात हज़ार स्थितिखण्डों का घात कर देता है और वह उतने मात्र ही स्थितिबन्धापसरणों को कर लेता है। उनसे भी असंख्यात हज़ार गणे अनभागखण्डों का घात करता है, क्योंकि एक अनुभागखण्डकोत्कीर्ण काल से एकस्थितिखण्डकोत्कीर्ण काल संख्यात गुणा अधिक होता है।
___ यह विधि करके वह मुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में प्रवेश करके इस गुणस्थान का संख्यातभाग काल अपूर्वकरण के विधान से ही बिताकर, पुनः अनिवृत्तिकरण का संख्यातभाग काल शेष रह जाने पर, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति, तिर्यच. गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगति प्रयोग्यानुपूर्व्य, तिर्यंचतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर देता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत कर अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों का क्रम से क्षपण करता है सो यह 'कर्मप्राभत' ग्रन्थ का उपदेश है, किन्तु कषायप्राभूत' का का ऐसा उपदेश है कि आठ कषायों का नाश कर देने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल के अनन्तर सोलह कर्म प्रकृतियों का अथवा बारह कर्मों का नाश करता है । पापभीरू भव्यों को इन दोनों उपदेशों को ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् केवली या श्रुतकेवली के अभाव में आज दोनों में से एक का सही निर्णय नहीं हो सकता है अतः हम और आपके लिए दोनों ही उपदेश प्रमाण के योग्य हैं।
___इसके बाद अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर चार संज्वलन और नौ नोकषायों का अन्तर करता है-उदय सहित कर्मों को अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है और जिनका उदय नहीं है ऐसे अनुदयकों (संज्वलन और नौ नोकषायों) को एक समय कम आवलिमात्र प्रथम स्थिति में स्थापित करता है। इसके बाद अन्तर करके अन्तर्मुहूर्त काल से नपुंसकवेद का क्षपण करता है । इसके अन्तर्मुहूर्त काल के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। पुनः अन्तर्मुहुर्त व्यतीत कर छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ वेद का सवेद भाग के द्विचरम समय में युगपत् विनाश कर देता है । पुनः आवलीमात्र काल के बाद पुवेद का क्षपण करता है। पुनः
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