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________________ ३८८ [ मूलाचारे अथ क्षपणविधि वक्ष्ये । क्षपणं नाम अष्टकर्मणां मूलोत्तरभेद इति न प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां जीवा ज्योतिः शेषे विन्यास इति (?) । अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वसम्यङ मिथ्यात्वसम्यक्त्वाख्याः सप्तप्रकृतीरेता असंयतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तो वा क्षपयति, किमक्रमेण नेत्याह-पूर्वमनन्तानुबन्धिचतुष्क त्रीन् करणान् कृत्वाऽनिवृत्ति करणचरणमसमयेऽक्रमेण क्षयपति । पश्चात्पुनरपि त्रीन् करणान् कृत्वा अधःप्रवृतिकरणापूर्वकरणौ द्वावतिक्रम्यानिवृत्तिकरणकालसंख्येयभागं गत्वा मिथ्यात्वं क्षपयति ततोऽन्तर्मुहुर्त गत्वा सम्यङ मिथ्यात्वं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा सम्यक्त्वं क्षपयति । ततोऽधःप्रवृत्तिकरणं कृत्वाऽन्तर्मुहूर्तेनापूर्वकरणो भवति स एकमपि कर्म [ न ] क्षपयति, किन्तु समयं प्रति असंख्येयगुणस्वरूपेण स्थान में उपशम सम्यक्त्व' को प्राप्त करके यह जीव द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि कहलाता है। पुनः उपशम श्रेणी चढ़ने के सन्मुख हुआ यह जीव छठे से सातवें गुणस्थान में आकर सातिशय अप्रमत्त से अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। उपर्युक्त कथित विधि से चारित्रमोह प्रकृतियों को उपशमाता हुआ ग्यारहवें उपशान्तकषाय गुणस्थान में सर्वमोह का उपशम कर देता है। यद्यपि इस उपशम विधि में अनेकों अन्तमुहूर्त बताये हैं। फिर भी प्रत्येक गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त ही है और उपशमश्रेणी के चारों गुणस्थानों का काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्यातों भेद माने गये हैं ऐसा समझना। अब क्षपण विधि को कहते हैं बन्ध के प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। तथा ज्ञानावरण आदि मूलभेद आठ और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। इन सबका नाश करना क्षपण है। इनके नाश होने पर जोव ज्ञानज्योति स्वरूप अपने अनन्त गुणों को प्राप्त कर लेता है। ___ अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व, सम्यङ् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत मुनि क्षय कर देता है। क्या एक साथ क्षय कर देता है ? नहीं, पहले वह अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण पुनः अनिवृत्तिकरण नामक तृतीय करण के चरम समय में अनन्तानुबन्धी-चतुष्क का एक साथ क्षपण कर देता है। इसके अनन्तर पुनः अधःप्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण का समय बिताकर अनिवृत्तिकरण काल में भी संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व कर्म का विनाश करता है । उसके बाद अन्तमुहूर्त काल व्यतीत करके सभ्यङ मिथ्यात्व का क्षपण करता है । पनः अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर सम्यक्त्व प्रकृति का विनाश करता है । तब उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है । अर्थात् यह क्षायिक सम्यक्त्व चोथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी में भी हो सकता है । ये तोन करण सम्यक्त्व के लिए होते हैं। अनन्तर छठा गुणस्थानवर्ती मुनि सातवें गुणस्थान में पहुंचकर उस अधःप्रवृत्तिकरण नामक सातवें गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त काल को व्यतीत कर अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त कर लेता है। वह अपूर्वकरण मुनि एक भी कर्म का क्षपण नहीं करता है, किन्तु समय-समय के प्रति असंख्यातगुणरूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा करता है। अन्तर्मुहूर्त १. विचारणीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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