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________________ [ मूलाचार ३७४ ] शद्रहित तीर्थंकराहारद्वय सहित मिध्यादृष्टिप्रकृतीर्वा सप्तषष्टिसंज्ञकाः संयतासंयतो बध्नाति । प्रत्याख्यानावरणक्रोधमान माया लोभसंज्ञकाश्चतस्रः प्रकृती: परिहृत्य शेषाः संयतासंयतबन्धप्रकृती: पंचपंचाशद्रहितमिथ्यादृष्टि प्रकृतिर्वा तीर्थंकराहारद्वयबन्धसहिताः पंचषष्टिप्रकृतीः प्रमत्तसंयतो बध्नाति । तथा तेनैव प्रकारेणाप्रमत्तादीनां बधप्रकृतयो द्रष्टव्यास्तद्यथा असद्वेद्यारतिशोकास्थिराशुभायशस्कीर्तिसंज्ञकाः षट् प्रकृतीः परिहृत्य शेषा अप्रमत्त बनातीति । अप्रमत्तप्रकृतीस्त्यक्तदेवायुः प्रकृतीरष्टापंचाशत्संज्ञका अपूर्वकरणो बहनातीति । आद्यभागेन ता एव निद्राप्रचला रहिताः षट्पंचाशत्प्रकृतीः स एवापूर्वकरण संख्यातभागेषु बध्नाति । तत ऊष्वं संख्येयभागे पंचेन्द्रियजातिवैक्रियिकाहारतजसकार्मणशरीरसमचतुरस्रसंस्थान वै क्रियिका हार कशरी रांगोपांग वर्णगन्धरसस्पशंदेवगति - देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुल धूपघातपरघातोच्छ्वासविहायोगति त्रस बादरपर्याप्त प्रत्येकशरीरस्थिरसुभगसुस्वरादेय निर्माणतीर्थकराख्याः प्रकृतीः परिहृत्य शेषाः षड्विंशतिप्रकृतीः स एवापूर्वकरणो बध्नाति, ततोऽनिवृत्ति प्रथमभागे ता एव प्रकृतीहस्य रतिभयजुगुप्सा रहिता द्वाविंशतिसंख्याका बध्नाति अनिवृत्तिबादरः । आहारकद्वय से सहित मिथ्यादृष्टि की प्रकृतियों को, अर्थात् सड़सठ प्रकृतियों को संयतासंयत बाँध हैं । अर्थात् मिथ्यात्वी की ६७ (११७-५३ ६४+३) प्रकृतियों का पंचमगुणस्थानवर्ती जीव बन्ध करते हैं । प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियों को छोड़कर शेष संयतासंयत की बन्ध प्रकृतियों को अथवा पचपन प्रकृति रहित मिथ्यादृष्टि प्रकृतियों में तीर्थंकर और आहारकद्वय ये तीन मिलाकर ऐसी पैंसठ प्रकृतियों को प्रमत्तसंयत बाँधते हैं । अर्थात् ११७ में ५५ घटाकर और ३ मिलाकर ६५ होती हैं । इसी प्रकार अप्रमत्तसंयत आदिकों की बन्ध प्रकृतियों को समझ लना चाहिए । उन्हीं का स्पष्टीकरण असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति इन छह प्रकृतियों को छोड़कर शेष उनसठ प्रकृतियों का अप्रमत्तसंयत जीव बन्ध करते हैं । इन अप्रमत्त की प्रकृतियों से एक देवायु को घटाकर शेष अट्ठावन प्रकृतियों को अपूर्वकरणसंयत बाँधता है। निद्रा और प्रचला से रहित इन्हीं छप्पन प्रकृतियों को वही संयत पूर्वकरण के संख्यात भाग जाने पर बाँधता है । पुनः इसके ऊपर संख्यात भाग व्यतीत होने पर पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्र-संस्थान, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, आहारशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूव्यं, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येकशरीर, स्थिर, (शुभ) सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर इन ३० प्रकृतियों को छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियों को वही अपूर्वकरण बाँधता है । अर्थात् अपूर्वकरण के प्रथम भाग में ५८ का संख्यात भाग के अनन्तर ५६ का और पुनः संख्यातवें भाग के अनन्तर २६ का बन्ध होता है । इसके अनन्तर अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में इन्हीं प्रकृतियों में से हास्य, रति, भय, जुगुप्सा रहित बाईस प्रकृतियों को अनिवृत्तिबादर नामक संयत बाँधता है । पुनः इसके ऊपर १. कर्मकाण्ड में छठे में आहारक द्वय का बन्ध न मानकर ६३ का बन्ध माना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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