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पर्याधिकारः ]
वज्जिय तेदालीसं तेवण्णं चेव पंचवण्णं च । बंधs सम्मादिडी दु साबओ संजदो तहा चेव ।। १२४२ ॥
चशब्देन सूचिताः सासादन सम्यङ् मिथ्यादृष्टयोर्बन्धप्रकृतीस्तावन्निरूपयामः - मिथ्यात्वनपुंसक वेदनरकायुर्न रकगत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रिय जाति हुंड संप्राप्ता सृपाटिकासंहनननरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यातिपस्थावर सूक्ष्मापर्याप्त कसाधारणशरीरसंज्ञकाः षोडश प्रकृतीस्त्यक्त्वा शेषा मिथ्यादृष्टिबन्धप्रकृती रेकोत्तरशतं सासादनसम्यगुवृष्टिबंनातीति । सम्यङ मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिबन्धप्रकृतीस्तीर्थ करदेवमनुष्यायुरहिताश्चतुःसप्तति संख्याका बनातीति । निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयनन्तानुबन्धिक्रोधमानमाया लोभस्त्री वेदतिर्यगास्तिर्यग्गतिमध्यमचतुःसंस्थान--मध्यमचतुः संहनन---तियंग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्योद्योताप्रशस्त विहायोगतिदुर्भगदुःस्व रानादेयनी -
संज्ञकाः पंचविशतिप्रकृतीः परिहृत्य तीर्थकरसहिताः सासादनबन्धप्रकृतीर्वा सप्तसप्तति प्रकृती र संयतसम्यग्दृष्टिनाति । अप्रत्याख्यानावरण कोधमानमायालोभमनुष्यगत्यौदा रिकशरीरांगोपांगमनुष्यायुर्व - नाराचसंहननमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम्नी दशप्रकृतीः परिहृत्य शेषा असंयतसम्यग्दृष्टिबन्धप्रकृती स्त्रिषंचा
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गाथार्थ - क्रम से तेतालीस, त्रेपन और पचपन छोड़कर शेष प्रकृतियों को सम्यग्दृष्टि, श्रावक और संयत बाँधते हैं ।। १२४२ ॥
आचारवृत्ति - 'च' शब्द से सूचित सासादन सम्यग्दृष्टि और समयङ मिथ्यादृष्टि की प्रकृतियों का निरूपण पहले करते हैं ।
मिथ्यात्व, नपुंसक वेद, नरकआयु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिका- संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्यं, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारण शरीर इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर शेष रहीं मिथ्यादृष्टि की एक सौ एक बन्धप्रकृतियों को सासादन सम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दृष्टि के बन्ध योग्य तीर्थकर, देवायु और मनुष्यायु इन तीन से चौहत्तर प्रकृतियों को बाँधते हैं । अर्थात् सासादन में पच्चीस प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न होती हैं । १०१ में ये २५ और आयु की २, ऐसी २७ प्रकृतियों के घटाने से ७४ प्रकृतियाँ बंधती हैं। वासादन में व्युचिन्न होनेवाली इन २५ प्रकृतियों को आगे कहते हैं ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तियंचाय, तिर्यंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यं, उद्यत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्चीस प्रकृतियों को छोड़कर तथा तीर्थकर प्रकृति मिलाकर ऐसी सासादन प्रकृतियों को अर्थात् सतत्तर प्रकृतियों को असंयत सम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं । अर्थात् १०१ में से २५ घटाकर और १ मिलाकर ७७ प्रकृतियों का चतुर्थगुणस्थानवर्ती बन्ध करते हैं ।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यायु, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य इन दश प्रकृतियों को छोड़कर शेष असंयतसम्यग्दृष्टि की बन्धप्रकृतियों को अर्थात् वेपनरहित और तीर्थंकर,
१. अथवा मिथ्या, गुणस्थान में बंधनेवाली ११७ में ३ अबन्धप्रकृति जोड़ देने पर सामान्यबन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं । इनमें से प्रथम गुणस्थान में व्युच्छिन्न १६, द्वितीय गुणस्थान में व्युच्छिन्न २५, चोथे गुणस्थान में व्युच्छिन्न प्रकृति १० तीनों मिलाकर ५१ हुए, तथा आहारकद्विक का यहाँ बन्ध नहीं है। अतः इन २ को मिलाकर ५३ प्रकृति को छोड़कर ६७ प्रकृतियाँ पंचम गुणस्थान में बंती है।
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