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________________ [ मूलाबारे जीवसंबन्धानां यः पुद्गलस्कन्धेः प्राप्तोदयैरन्योन्यसंश्लेषणसंबन्धो भवति तच्छरीरबन्धनं नामकर्म । यदि शरीरबन्धननामकर्म न स्याद्वालुकाकृतपुरुषशरीरमिव शरीरं स्यात्।तदौदारिकशरीरबन्धनादिभेदेन पंचविधम् । यदुदयादीदारिकादिशरीराणां विवरविरहितान्योन्यप्रवेशानुप्रवेशेनैकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम। यदि संघातनामकर्म न स्यात्तिलमोदक इव जीवशरीरं स्यात। तच्चीदारिकशरीरसंघातादिभेदेन पंचविधम् । यदुदयादोदारिकादिशरीराकृतेनि तिर्भवति तत्संस्थाननाम, येषां कर्मस्कन्धानामुदयेन जातिकर्मोदयपरतन्त्रेण शरीरस्य संस्थानं क्रियते तच्छरीरसंस्थानम् । यदि तन्न स्याज्जीवशरीरमसंस्थानं स्यात् । तच्च षोढा विभज्यते--समचतुरस्रसंस्थाननाम, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम, स्वातिशरीरसंस्थाननाम, वामनसंस्थाननाम, कुब्जसंस्थाननाम, हुंडकसंस्थाननाम । समचतुरस्र समचतुरस्रसमविभक्तमित्यर्थः । न्यग्रोधो वृक्षस्तस्य परिमण्डलमिव परिमण्डलं यस्य तन्यग्रोधपरिमण्डलं नाभेरूध्वं सर्वावयवपरमाणुबहुत्वं न्यग्रोधपरिमण्डलमिव न्यग्रोधपरिमण्डलशरीरसंस्थानमायतवृत्तमिर्थः । स्वाति वाल्मीक शाल्मलिर्वा तस्य संस्थानमिव संस्थानं यस्य तत्स्वातिशरीरसंस्थानं नाभेरधोवयवानां विशालत्वमूर्ध्वं सौक्ष्म्यम् । कुब्जस्य शरीरं कुब्जशरीरं तस्य संस्थान शुभ से सुभिक्ष होता है और अशुभ से द्वादश योजन भूमि के जीव भस्मसात् हो जाते हैं। अनिःसरणात्मक तैजस सभी संसारी जीवों के साथ रहता है, वह शरीर में कान्ति का कारण है। जिसके उदय से कूष्माण्डफल अथवा बैगन फल के समान सभी कर्मों के लिए आश्रयभूत शरीरपिण्ड होता है उसको कार्मणशरीर नाम कहते हैं । (४) जो शरीर की रचना के लिए आये हों अर्थात् जीव से सम्बन्ध को प्राप्त हो चुके हो. उदयप्राप्त पुद्गलस्कन्धों का परस्पर में संश्लेष-सम्बन्ध होना शरीरबन्धन नामकर्म है। यदि शरीरबन्धन नामकर्म न हो तो यह शरीर बालू द्वारा बनाये हुए पुरुष के शरीर के समान हो जाय । इसके भी औदारिकशरीरबन्धन, वैक्रियिकशरीरबन्धन आदि पाँच भेद हैं। (५) जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के परमाणुओं का परस्पर में छिद्ररहित प्रवेशानुप्रवेश होकर एकरूपता आ जावे उसे संघात नामकर्म कहते हैं। यदि संघात नामकर्म न हो तो जोव का शरीर तिल के लड्डू के समान हो जाये। इसके भी पांच भेद हैं-औदारिकशरीरसंघात, वैक्रियिकशरीरसंघात आदि । (६) जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के आकार की रचना हो वह संस्थान नामकर्म है, अर्थात जातिकर्म के उदय के आधीन जिन कर्मस्कन्धों के उदय से शरीर का संस्थान किया जाता है वह शरीरसंस्थान है। यदि यह कर्म न हो तो जीव का शरीर संस्थान रहित हो जावे। उसके छह भेद हैं—समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, स्वातिशरीरसंस्थान, वामनसंस्थान, कब्जसंस्थान और हण्डकसंस्थान । समान चौकोन वस्तु के समान समचतुरस्र है, अर्थात् यह कर्म शरीर के सभी अवयवों को समप्रमाण उत्पन्न करनेवाला है । न्यग्रोध वटवृक्ष को कहते हैं । उसके सघन घेरे के समान जिसका आकार हो अर्थात् जिसके नाभि के ऊपर के सभी अवयवों में बहुत परमाणु रहते हैं ऐसा वटवृक्ष के आकार सदृश न्यग्रोधपरिमण्डल शरीर का आकार होता है। स्वाति शब्द का अर्थ है बामी अथवा शाल्मलिवृक्ष, उसके आकार के सदृश जिसका आकार हो वह स्वातिसंस्थान है। इसमें नाभि के नीचे के अवयव बड़े होते हैं और ऊपर के अवयव छोटे रहते हैं। कुब्ज-कूबड़े का शरीर कुब्जशरीर है। उसके आकार के समान जिसका आकार हो अर्थात् जिस कर्म के उदय से शाखाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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