________________
३३८]
[ मूलाचारे
मनुष्यगतौ सर्वस्तोकाः संख्याताः सर्वान्तीपेषु मनुष्याः, ऊ। तेभ्यश्च दशसु कुरुषूपभोगभूमिषु मनुष्याः संख्यातगुणा भवन्ति ज्ञातव्याः, ऊऊ । तेभ्यश्च दशसु भोग भूमिषु हरिरम्यकवर्षेषु मनुष्याः संख्यातगुणाः, ऊऊऊ। तेभ्यश्च दशसु जघन्यभोगभूमिषु हैमवतहै रण्यवतसंज्ञकासु मनुष्याः संख्यातगुणाः, ऊऊऊऊ। तेभ्यश्च पंचसु भरतेषु पंचस्वैरावतेषु च भनुष्याः संख्यातगुणाः, ऊऊऊऊऊ । तेभ्यश्च निश्चयेन मनुष्या विदेहेषु संख्यातगुणा भवन्ति, ऊऊऊऊऊऊ । ज्ञातव्याः स्फुटं । तेभ्यश्च सम्मूर्छनजा मनुष्या असंख्यातगुणाः श्रेण्यसंहयातकभागमात्राः, स च श्रेण्यसंख्यातभागाः असंख्यातयोजनकोटीकोटीप्रदेशमात्रः सूच्यंगुलप्रथमवर्गमूलेन सूच्यंगुलतृतीयवर्गमूलगुणितेन श्रेणेर्भागे हृते यल्लब्धं 'तावन्मात्रा १/१३ । त एते अपर्याप्ता लब्ध्यपर्याप्ता एव । शेषाः पुनः संख्याता ये मनुष्यास्ते सर्वे पर्याप्ता, नास्ति तेषां लब्ध्यपर्याप्तत्वम् । एवं देवनारकाणामपि सर्वेषां लब्ध्यपर्याप्तत्वं नास्ति निर्वृत्त्यपर्याप्तत्वं पुनर्विद्यत एवेति ॥१२१८-२१॥ देवगतावल्पबहुत्वमाह
थोवा विमाणवासी देवा देवी य होंति सम्वेवि । तेहिं असंखेज्जगुणा भवणेसु य दसविहा देवा ॥१२२२॥
आचारवृत्ति-मनुष्य गति में सभी अन्तर्वीपों में होनेवाले मनुष्य सबसे थोड़े हैं अर्थात् संख्यात हैं। उनकी अर्थ-संदृष्टि 'अ' है।
उनसे संख्यातमुणे मनुष्य पाँच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु नामक भोगभूमियों में हैं। उनकी संदृष्टि 'ऊऊ है। उनसे संख्यातगुणे मनुष्य पाँच हरिक्षेत्र और पाँच रम्यकक्षेत्र, इन दस मध्यम भोगभूमियों के हैं। इनकी संदृष्टि 'ऊऊऊ' है। इनसे संख्यातगुणे मनुष्य पाँच हैमवत और पाँच हैरण्यवत नामक दस जघन्य भोगभूमियों में होते हैं। उनकी संदृष्टि 'ऊऊऊऊ' है। उनसे संख्यातगुणे मनुष्य पाँच भरतक्षेत्र और पाँच ऐरावत, इन दश कर्मभूमियों में होते हैं। इनकी संदृष्टि 'ऊऊऊऊऊ' है। इनसे संख्यातगुणे मनुष्य निश्चित ही पाँच महाविदेहों में होते है। इनकी दृष्टि 'ऊऊऊऊऊऊ' है।
संमूर्च्छन मनुष्य उनसे असंख्यातगुणे होते हैं, अर्थात् वे श्रेणी के असंख्यात भाग में से एक भागमात्र हैं। वह श्रेणी का असंख्यावाँ भाग असंख्यात योजन कोडाकोड़ी प्रदेश मात्र सूच्यंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित जो सूच्यंगुल का प्रथम वर्गमूल है, उससे श्रेणी में भाग देने पर जो लब्ध आये अर्थात् उतने मात्र वे हैं । ये जीव अपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं । पुनः शेष जो पर्याप्तक मनुष्य हैं वे सब संख्यात ही हैं क्योंकि उनमें लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था नहीं है। इसी प्रकार सभी देव और नारकियों में भी लब्ध्यपर्याप्तक नहीं हैं किन्तु उनमें निर्वृत्त्यपर्याप्तक ही हैं।
देवगति में अल्पबहुत्व को कहते हैंगाथार्थ-विमानवासी देव और देवियाँ, ये सभी थोड़े होते हैं, उनसे असंख्यात गुणे
Jain Education International
www.jainelibrary.org |
For Private & Personal Use Only