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________________ पर्याप्त्यधिकारः तत्तो विसेसअहिया जीवा तेइंदिया दु णायव्वा। तेहितोणंतगुणा भवंति वइंदिया जीवा ॥१२१७॥ तियंचः पंचेन्द्रियाः स्तोकाः प्रतरासंख्यातभागमात्राः १/२। तेभ्यश्च पंचेन्द्रियेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः स्वराश्यसंख्यातभागमात्रेण १/२/४/१/१ । तेभ्यश्चतुरिन्द्रियेभ्यो द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः ४/७। विशेषाः पुनः स्वराश्यसंख्यातभागमात्राः१/१/४/९ तेभ्यश्च द्वीन्द्रियेभ्यस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः। विशेषः पुनः स्वराश्यसंख्यातभागमात्रः १/१/४/६। तेभ्यश्च त्रीन्द्रियेभ्योऽनन्त गुणाः भवन्त्येकेन्द्रिया जीवा ज्ञातव्याः ३/१/४/३ इति ॥१२१६-१७॥ मनुष्यगतावल्पबहुत्वमाह अंतरदीवे मणुया थोवा मणुयेसु होंति जायग्वा। कुरुवेसु दससु मणुया संखेज्जदुणा तहा होति ॥१२१८॥ तत्तो संखेज्जगुणा मणुया हरिरम्मएसु वस्सेसु । तत्तो संखिज्जगुणा हेमववहरिण्णवस्साय ॥१२१९॥ भरहेरावदमणुया संखेज्जगुणा' हवंति खलु तत्तो।। तत्तो संखिज्जगुणा णियमादु विदेहगा मणुया ॥१२२०॥ सम्मुच्छिमा य मणुया होंति असंखिज्जगुणा य तत्तो दु। ते चेव अपज्जत्ता सेसा पज्जतया सव्वे ॥१२२१॥ दोइन्द्रिय जीव उनसे विशेष अधिक हैं। उनसे विशेष अधिक तोन-इन्द्रिय जीव जानना चाहिए और उनसे भी अनन्तगणे एकेन्द्रिय जीव होते हैं ॥१२१६-१७॥ आचारवृत्ति-पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव सबसे थोड़े हैं । अर्थात् वे प्रतर के असंख्यातवें भागमात्र हैं, उनकी संदृष्टि १/२ है। उन पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों से चतुरिन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं अर्थात वे उस राशि के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उन चतुरिन्द्रिय जीवों से दीन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। यह विशेष पनः उस राशि के असंख्यातवें भाग मात्र इसी प्रकार, इन दो-इन्द्रियों से तीन-इन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं। यह विशेष पुनः उक्त राशि के असंख्यातवें भाग मात्र अधिक है। इन तीन इन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्त गुणे हैं ऐसा जानना चाहिए। (इनसे सम्बन्धित सभी संदृष्टियाँ ऊपर टीका में देखें)। अब मनुष्य गति में अल्पबहुत्व को कहते हैं गाथार्थ-मनुष्यों में अन्तर्वीपों में सबसे थोड़े मनुष्य होते हैं ऐसा जामना तथा पांचदेवकुरु, पांच उत्तरकुरु में मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं। पुनः पाँच हरिक्षेत्र और पांच रम्यकाक्षेत्रों में मनुष्य संख्यातगुणे अधिक हैं । पाँच हैमवत और पाँच हैरप्यवत क्षेत्रों के मनुष्य इससे संख्यातगुणे हैं । उससे संख्यातगणे पाँच भरत और पाँच ऐरावत के मनुष्य होते हैं तथा पाँचों विदेहक्षेत्रों के मनुष्य नियम से उनसे संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातगुणे संमूर्छन मनुष्य होते हैं, ये ही अपर्याप्तक हैं, जबकि शेष सभी पर्याप्तक हैं ।।१२१८-१२२१॥ १.क गुणा यहोति तत्तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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