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________________ पर्याप्स्यविकारः ] [१२७ असज्ञियु मिथ्यादृष्टिसंज्ञकमेकम्, आहारेषु मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगान्तानि । नोकर्मापेक्षयतन्न कवलाहारापेक्षया तस्याऽभावात् । अनाहारिषु मिथ्यादृष्टिसासादनसंयतसम्यग्दृष्टिसयोग्ययोगिसंज्ञकानि विग्रहंप्रतरलोकपूरणापेक्षयेति ।।१२०२॥ जीवगुणमार्गणास्थानानि प्रतिपाद्य तत्सूचितं क्षेत्रप्रमाणं द्रव्यप्रमाणं च प्रतिपादयन्नाह एइंदिया य पंचेंदिया य उड्ढमहोतिरियलोएसु । सयलविलिदिया पुण जीवा तिरियंमि लोयंमि ॥१२०३॥ __ आहार मार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीपर्यन्त तेरह गुणस्थान हैं। यह कथन नोकर्म आहार की अपेक्षा से ही है, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं क्योंकि केवलियों में कवलाहार का अभाव है। अनाहारी जीवों में मिथ्यादष्टि, सासादन, असयतसम्यग्दष्टि सयोगिजिन और अयोगिजिन नामक पाँच गुणस्थान हैं। आदि के तीन गुणस्थान तो विग्रहगति को अपेक्षा से हैं और सयोगिजिन में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा से कथन है। जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा स्थानों का प्रतिपादन करके अब सूत्र में सूचित क्षत्रप्रमाण और द्रव्यप्रमाण का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं गाथार्थ-एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में रहते हैं किन्तु सभी विकलेन्द्रिय जीव तिर्यग्लोक में ही हैं ॥१२०३।। * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में निम्नलिखित १५ गाथाएँ अधिक हैं। इनके द्वारा इन्द्रिय बादि सभी मार्गणाओं में गुणस्थानों को घटित किया गया है एगविलिदिपाणं मिच्छाविदिस्स होह गुगता। मासावणस्य केहि विनियं बोहस सलिविवाणं ॥ मर्च-एकेनिय और विकलेन्द्रियों के मिथ्यादष्टि गुणस्थान है। कोई आवार्य एकेन्द्रियों में तेज और वायु को छोड़कर शेष तीन में सासादन भी कहते हैं । पंचेन्द्रियों में चौदह गुणस्थान है। पुढवीकायादीणं पंचसु जाणाहि मिच्छगणठा। तसकायिएस चोइस भणिया गणणामषेयाणि ।। वर्ष-पृथिवीकाय आदि पांच में मिथ्यात्व गुणस्थान है । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान हैं। सच्चे मणवचिजोगे असच्चमोसे य तह य दोण्हं पि। मिच्छादिद्रिप्पहदी जोगता तेरसा होति ॥ अर्थ-सत्य-मन-वचनयोग में और असत्यमृषा-मन-वचनयोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीपर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। शेष दो मनोयोग ओर दो वचनयोग में पहले से क्षीणकषाय तक होते हैं। वेउव्वकायजोगे चत्तारि हवंति तिणि मिस्सम्हि। आहारदुगस्सेगं पमत्तठाणं विजाणाहि॥ अर्थ-वक्रियिक काययोग में आदि के चार एवं वैक्रियिकमिश्र में तृतीय को छोड़कर ये ही तीन गुणस्थान होते हैं। माहार-द्वय में एक प्रमत्त-गुणस्थान ही होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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