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________________ ३२४] [ मूलाचारे चक्षदर्शनं क्षयोपशमस्य सद्भावादुपयोगः पुनस्त्येिव अचक्षुर्दर्शने चतुर्दशाप्यवधिदर्शने द्वौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती, केवलदर्शने च संज्ञिपर्याप्त एक एव, कृष्णनीलकापोतलेश्यासु चतुर्दशापि, तेज:पद्मशुक्ललेश्यासु द्वौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती, अभव्यभव्यसिद्धेषु चतुर्दशापि, क्षायोपशमिकक्षायिकसासादनसम्यक्त्वकेषु उपशमश्रेण्यपेक्षया औपशमिकसम्यक्त्वे च द्वौ संज्ञिपर्याप्तपर्याप्ता सम्यङ मिथ्यात्वे प्रथमसम्यक्त्वे च पर्याप्तः संज्ञी एक एव, मिथ्यात्वे चतुर्दशापि, संज्ञिषु संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ,' आहारिषु चतुर्दशापि अनाहारिषु सप्तापर्याप्ताः अष्टमः संज्ञी पर्याप्तः केवली। सर्वत्र जीवसमासा इति संबन्धः ॥१२०१॥ इति मार्गणास्थानेषु जीवसमासान् प्रतिपाद्य गुणस्थानानि प्रतिपादयन्नाह सुरणारयेसु चत्तारि होति तिरियेसु जाण पंचेव। मणुसगदीएवि तहा चोद्दसगुणणामधेयाणि ॥१२०२॥ सुरेषु नारकेषु च मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतपर्यन्तानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति, तिर्यक्ष तान्येव कथितानि' संयतासंयतश्च पंच भवन्ति, मनुष्यगतो पुनः चतुर्दशापि मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगपर्यन्तानि गुणस्थानानि का सदभाव है। उस अवस्था में उपयोग तो है ही नहीं। अचक्षर्दर्शन में चौदहों संभव हैं। अवधिदर्शन में संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्त ये दो हैं और केवलदर्शन में सज्ञी पर्याप्तक ही है। कृष्ण, नील और कापोत इन तीनों लेश्याओं में चौदहों और पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में सजी पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो हैं। भव्यसिद्ध जीवों में तथा अभव्यों में भी चौदहों संभव हैं। क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व, क्षायिक-सम्यक्त्व और सासादन-सम्यक्त्व इनमें तथा उपशम श्रेणी की अपेक्षा से औपशमिक सम्यक्त्व में सज्ञीपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो जीवसमास हैं। सम्यग्मिथ्यात्व और प्रथमसम्यक्त्व (प्रथमोपशमसम्यक्त्व) में एक सज्ञीपर्याप्तक जीवसमास है। मिथ्यात्व में चौदहों जीवसमास हैं। अस जी तथा सज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्त ये दो हैं । आहारी जीवों में चौदहों जीवसमास हैं। अनाहारी जीवों में सात अपर्याप्तक तथा सज्ञीपर्याप्तक ये आठ हैं । यहाँ यह सज्ञीपर्याप्तक जीबसमास केवली के कार्मणकाययोग की अपेक्षा से है। इस तरह सर्वत्र जीवसमासों का कथन है । मार्गणा-स्थानों में जीवसमासों का प्रतिपादन कर अब गुणस्थानों को कहते हैं गाथार्थ-देव और नारकियों में चार गुणस्थान होते हैं । तिर्यंचों में पांच गुणस्थान ही होते हैं । मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं ।।१२०२॥ प्राचारवत्ति-देव और नारकियों में मिथ्यादृष्टि से लेकर असयत पर्यन्त चार गणस्थान होते हैं । तिर्यंचों में ये चार और सयतासयत इस प्रकार पाँच होते हैं। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोग पर्यन्त चौदह गुणस्थान होते हैं । इसी प्रकार से सभी मार्गणाओं में घटित १. असंज्ञिषु शेषा द्वादशजीवसमासाः। २. क संयतासंयताधिकानि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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