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________________ पर्वाप्स्यधिकारा] [ ३२३ योगमृषामनोयोगसत्यमृषामनोयोगेषु, अनुभयमनोयोगेषु संज्ञिपर्याप्तक एको जीवसमासः, त्रिषु वाग्योगेषु सत्यमृषोभयवाग्योगेषु संज्ञिपर्याप्त एक, अनुभयवाग्योगे द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिचयतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिनः पर्याप्ताः पञ्च, औदारिककाययोगे बादरसूक्ष्मविकलेन्द्रियसंज्ञ यसंज्ञिनः पर्याप्ताः सप्त, औदारिकमिश्रकाययोगे त एव किन्त्वपर्याप्ताः संज्ञिपर्याप्ताश्चाष्टौ । वैक्रियिककाययोगे संज्ञी पर्याप्त एकः, वैक्रियिकमिश्रकाययोगे निर्व त्यपर्याप्तापेक्षया संजयपर्याप्ता लब्ब्यपर्याप्तापेक्षया लब्ध्यपर्याप्ताः । आहाराहारमिश्रयोरेक एव संज्ञी पर्याप्तः । कार्मणकाययोगे सप्तापर्याप्तः अष्टम: संज्ञी पर्याप्तलोकपूरणस्थः । स्त्रीवेदे पुंवेदे च संज्ञ यसंज्ञ यपर्याप्तपर्याप्ताश्चत्वारः । नपुंसकवेदे च चतुर्दशापि। क्रोधमानमायालोभेषु चतुर्दशापि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयोश्चतुर्दशापि, मतिश्रुतावधिज्ञानेषु द्वौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तो निर्वृत्यपर्याप्तापेक्षया, केवलमनःपर्ययविभंगज्ञानेषु संज्ञी पर्याप्त एकः ।सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातसंयमेषु संयमासंयमे च संज्ञी पर्याप्त एक एव, असंयमे च चतुर्दशापि । चक्षुर्दर्शने चतुरिन्द्रियसंज्ञ यसंज्ञिपर्याप्ता पर्याप्ताः षड्, अपर्याप्तकालेऽपि सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग इन चारों में एक संज्ञीपर्याप्त जीवसमास है । सत्य, असत्य और उभय इन तीनों वचनयोगों में एक संज्ञीपर्याप्त जीव. समास है। अनुभयवचनयोग में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय सैनी और असैनी ये पाँचों पर्याप्तकरूप पाँच जीवसमास होते हैं । औदारिककाययोग में बादर-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सैनी-असैनी के पर्याप्तक सम्बन्धी सात जीवसमास होते हैं। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोग में ये सात अपर्याप्त रहते हैं तथा एक संज्ञी पर्याप्तक' ऐसे आठ जीवसमास होते हैं। वैक्रियिककाययोग में संज्ञीपर्याप्त एक है तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोग में निर्वृत्त्यपर्याप्तक की अपेक्षा संज्ञीअपर्याप्त एक जोवसमास, एवं लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्त' एक जीवसमास होता है । आहार और आहारमिश्रयोग में एक संज्ञीपर्याप्तक जीवसमास होता है। कार्मणकाययोग में सात अपर्याप्तक एवं एक संज्ञीपर्याप्तक ऐसे आठ जीवसमास होते हैं। कार्मणकाययोग में यह संज्ञीपर्याप्त जीवसमास केवली के लोकपूरणसमुद्घात की अवस्था में होता है। स्त्रीवेद में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त और पुरुषवेद में असंज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त ये चार जीवसमास हैं। नपुंसकवेद में चौदहों जीवसमास होते हैं।। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों में चौदह जीवसमास भी संभव हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञान में संज्ञीपर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो जीवसमास हैं। यहाँ अपर्याप्त जीवसमास निवृत्यपर्याप्त की अपेक्षा से है । केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और विभंगज्ञान में एक संज्ञीपर्याप्तक जीवसमास है। ___ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यातसंयम तथा संयमासंयम मे संज्ञीपर्याप्तक एक ही जीवसमास है। असंयम में चौदहों जीवसमास हैं।। चक्षुर्दर्शन में चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के सनी-अस नी तथा इनके पर्याप्त-अपर्याप्त ऐसे छह जीवसमास हैं । अपर्याप्तकाल में भी चक्षुर्दर्शन माना गया है, क्योंकि वहाँ भी क्षयोपशम १. औदारिक मिश्र में सजी पर्याप्तक का भेद समुद्घातगतकेवली की अपेक्षा से है। कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान में भी चौदह जीवसमास होते हैं । २. यह बादर वायु-कायिक और बादर अग्निकायिक की अपेक्षा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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