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[ मूलाचार
यस्य पर्याप्तस्य स्पर्शनरसनकायबलवाग्बलोच्छवासायंषि षट् प्राणा भवन्ति, अपर्याप्तस्य त एव वागुच्छवासरहिताश्चत्वारः। त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्पर्शनरसनघ्राणकायबलवाग्बलोच्छ्वासायूंषि सप्त प्राणा भवन्ति, त एव वागुच्छ्वास रहिताः पंचापर्याप्तस्य । स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुःकायबलवाग्बलोच्छ्वासायूंष्यष्टी प्राणाश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तस्य भवन्ति, वागुच्छ्वासरहितास्त एव षडपर्याप्तस्य भवन्ति । पंचेन्द्रियस्य कायबलवाग्बलोच्छवासायंषि चासंज्ञिनः पर्याप्तस्य नव प्राणा भवन्ति, त एवं वागुच्छ्वास रहिताः सप्त भवन्त्यपर्याप्तस्य । संज्ञिनः पर्याप्तस्य पुनः सर्वेऽपि दश प्राणा भवन्ति, अपर्याप्तस्य मनोवागुच्छ्वासरहितास्त एव सप्त भवन्तीति ॥११९४॥ जीवसमासान्निरूपयन्नाह
सुहमा वादरकाया ते खलु पज्जत्तया अपज्जत्ता।
एइंदिया दु जीवा जिणेहिं कहिया चदुवियप्पा ॥११६५।। ते पुनरेकेन्द्रिया बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ता जिनश्चतुर्विकल्पाः कथिता इति कृत्वा चत्वारो जीवसमासा भवन्तीति ॥११६५॥ शेषजीवसमासान् प्रतिपादयन्नाह
पज्जत्तापज्जत्ता वि होंति विलिदिया दु छन्भेया। पज्जत्तापज्जत्ता सण्णि असण्णीय सेसा दु॥११६६॥
रहित ये ही तीन प्राण होते हैं। दो-इन्द्रिय पर्याप्तक के स्पर्शन, रसना, कायबल,वचनबल, उच्छ्वास और आयु ये छह प्राण हैं तथा अपर्याप्तक के वचनबल और उच्छ्वास रहित ये ही चार प्राण हैं। तीन इन्द्रिय पर्याप्तक जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, कायबल, वचनवल, उच्छ्वास और आयु ये सात प्राण होते हैं । अपर्याप्तक के वचनबल और उच्छ्वास रहित ये ही पाँच होते हैं । चार इन्द्रिय पर्याप्तक जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्ष , कायबल, वचनबल, उच्छ्वास और आयु ये आठ प्राण होते हैं तथा अपर्याप्तक के वचन और उच्छ्वास रहित ये ही छह प्राण होते हैं । पुनः संज्ञी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक के स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु, श्रोत्र, कायबल, वचनबल, उच्छ्वास
और आयु ये नवप्राण होते हैं तथा अपर्याप्तक के वचन और उच्छ्वास रहित ये ही सात प्राण होते हैं। पर्याप्तक के सभी दश प्राण होते हैं एवं अपर्याप्तक के मनोबल, वचनबल और उच्छ्वास रहित वे ही सात प्राण होते हैं ।
जीवसमासों का निरूपण करते हैं
गाथार्थ-सूक्ष्म और बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे एकेन्द्रिय जीव के चार भेद जिनेन्द्रदेव ने कहे हैं ॥११६५
___आचारवृत्ति-एकेन्द्रिय जीव के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार जीवसमास जिनेन्द्रदेव ने कहे हैं।
शेष जीवसमासों का प्रतिपादन करते हैं
गाथार्थ-विकलेन्द्रिय भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होकर छह भेद रूप हो जाते हैं तथा शेष पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी दोनों भेद भी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं ॥११६६॥
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