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________________ पर्याप्स्यधिकारः । [२९६ विगलिवियाणं-सर्वेषां टिकलेन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तानां अविरुद्धं अप्रतिषिद्ध संक्रमणंगमनं माणुस-मनुष्यभवे तिरिय-तिर्यग्भवे च । पृथिवीकायिकाकायिकवनस्पतिकायिकाः सर्वे विकलेन्द्रियाश्चागत्य तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्ते नात्र विरोध इति ॥११६६।। तेजोवायूनां संक्रमणमाह सम्वेवि तेउकाया सव्वे तह वाउकाइया जीवा। ण लहंति माणुसत्त णियमादु अणंतरभवेहिं ॥११६७॥ सर्वेऽपि बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ता तेजस्कायिकास्तथैव सर्वे बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ताः वायुकायिका जीवा न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति मनुष्यत्वं नियमात्तु अनन्तरभवे, न तेनैव भवेनेति ।।११६७॥ प्रत्येकवनस्पतिपृथिवीकायाप्कायबादरपर्याप्तानामागमनमाह पत्त्यदेह वणप्फइ वादरपज्जत्त पुढवि आऊय । माणुसत्तिरिक्खदेवेहि चेव आइंति खलु एवे ॥११६८॥ प्रत्येकदेहाः नालिकेरादिवनस्पतयः बादराः पर्याप्ता पृथिवीकायिका अप्कायिकाश्चैतेऽपि बादराः पर्याप्ताश्च मनुष्यतिर्यग्देवेभ्य एवायान्ति स्फुटमेतन् नान्येभ्य इति । मनुष्यतिर्यग्देवाः संक्लिष्टा आतंध्यानपरा मिथ्यादृष्टय आगत्य प्रत्येकवनस्पतिपृथिवीकायिकाप्कायिकेषत्पद्यन्त इति ॥११६८॥ असंज्ञिपर्याप्तानां संक्रमणमाह-- पर्याप्तक और अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव मरण करके, वहाँ से आकर मनुष्य और तिर्यच पर्यायों में ही उत्पन्न होते हैं इसमें विरोध नहीं है। अग्निकायिक और वायुकायिक का संक्रमण कहते हैं सभी अग्निकाय तथा सभी वायुकाय जीव अनन्तर भव में नियम से मनुष्य पर्याय नहीं प्राप्त कर सकते हैं ॥११६७।। आचारवृत्ति-सभी बादर-सूक्ष्म पर्याप्तक और अपर्याप्तक अग्निकायिक जीव तथा सभी बादर-सूक्ष्म पर्याप्तक, अपर्याप्तक वायुकायिक जीव उसी भव से मरणकर निश्चित ही मनुष्यपर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। प्रत्येकवनस्पति, पृथिवीकाय और जलकाय बादरपर्याप्तक जीवों का आगमन कहते गाथार्थ-प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक, पृथिवीकायिक और जलकायिक बादर पर्याप्तक जीव निश्चित ही मनुष्य, तिर्यंच और देवगति से ही आते हैं ॥११६८॥ ___ आचारवृत्ति-नारियल आदि वनस्पति प्रत्येकशरीर बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर, पर्याप्तक अपर्याप्तक जीव(?)मनुष्य, तिथंच और देवगति से ही आते हैं, अन्य गति से नहीं। संक्लेश परिणामवाले, आर्तध्यान में तत्पर हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच और देव मरण करके आकर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं। असंज्ञिपर्याप्त जीवों का आगमन कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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