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________________ २९४ ] [मूलाचारे आ पंचमित्ति सोहा इत्थीनो जति छढिपुढवित्ति। गच्छंति माधवीत्ति य मच्छा मणुया य ये पावा ॥११५६॥ यान्तीति क्रियापदं तेन सह संबन्धः, प्रथमां पृथिवीमसंज्ञिनोऽमनस्का यान्ति, प्रथमां द्वितीयां च पृथिवीं सरीसृपा गोधोककलासादयो यान्ति, पक्षिणो भेरुण्डादयः प्रथमामारभ्य यावत्तृतीयां पृथिवीं यान्ति, प्रथमामारभ्य यावच्चतुर्थी पथिवीमुरःसर्पा अजगरादयो यान्ति । अत्र पापं कृत्वा तत्र च गत्वा दुःखमनुभवन्तीति ॥११५।। आङभिविधौ द्रष्टव्यः आ पंचम्या इति । प्रथमामारभ्य यावत्पंचमी पृथिवीं सिंहव्याघ्रादयो गच्छन्ति, स्त्रियः पुनर्महापापपरिणताः प्रथमामारभ्य षष्ठी पृथिव्यन्तं यान्ति, मत्स्याः मनुष्याश्च ये पापा महाहिंसादिपरिणताः माघवीं सप्तमी पृथिवीं प्रथमामारभ्य गच्छन्ति । अयं पापशब्दः सर्वेषामभिसंबध्यते । यदि रौद्रध्यानेन हिंसादिक्रियायां परिणताः स्युस्तदा ते पापानुरूप नरकं गत्वा दुःखमनुभवन्तीति ॥११५६।। नारकाणामुपपादं प्रतिपाद्य तेषामुद्वर्त्तन प्रतिपादयन्नाह उध्वट्टिदाय संता रइया तमतमादु पुढवीदो। ण लहंति माणुसत्तं तिरिक्खजोणीमुवणयंति ॥११५७॥ तक, स्त्रियाँ छठी पृथ्वी तक जाते हैं तथा जो पापी मत्स्य और मनुष्य हैं वे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त जाते है ॥११५५-११५६।। प्राचारवत्ति—'यान्ति' क्रिया पद का सबके साथ सम्बन्ध करना । मन रहित पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव पहली पृथ्वी तक जा सकते हैं। कृकलास आदि--गोह, करकेंटा आदि जीव पहली और दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं । भेरुण्ड आदि पक्षी पहली से लेकर तीसरी पथ्वी तक जाते हैं । अजगर आदि साँप चौथी पृथ्वी तक जाते हैं अर्थात् यहाँ पाप करके वहाँ जाकर दुःख का अनुभव करते हैं। 'आङ' अभिविधि अर्थ में हैं । अतः सिंह, व्याघ्र आदि पहली पृथ्वी से लेकर पाँचवीं पृथ्वी तक जाते हैं। महापाप से परिणत हुई स्त्रियाँ पहली पृथ्वी से लेकर छठी पृथ्वी तक जाती हैं। महाहिंसा आदि पाप से परिणत हुए मत्स्य और मनुष्य पहली पृथ्वी से लेकर माघवी नाम की सातवीं पृथ्वी पर्यन्त जाते हैं। यह पाप शब्द सभी के साथ लगा लेना चाहिए। यदि ये जीव रौद्रध्यान से हिंसादि क्रिया में परिणत होते हैं तो वे अपने पाप के अनुरूप नरक में जाकर दुःख का अनुभव करते हैं। नारकियों का उपपाद बतलाकर अब उनके निकलने का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-तमस्तम नामक सातवीं पृथिवी से निकले हुए नारकी मनुष्यपर्याय प्राप्त नहीं कर सकते हैं, वे तिर्यंच योनि को प्राप्त करते हैं।।११५७।। * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में यहाँ पर इन्द्रियों के विषयों की छह गाथाएँ हैं जो कि इसमें पहले गाथा १०६६ से आ चुकी हैं। १. क षष्ठीपृथिवीं यावद् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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