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________________ पर्याप्यधिकारः ] [ २८५ शब्दा: । अथवेन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि तद्विषयाश्च विबूहि - विद्वद्भिः प्रत्यक्षदर्शिभिः, पण्णत्ता - प्रज्ञप्ताः कथिताः दृष्टा वा । कामो— काम:, रसोय - रसश्च, फासो -- स्पर्शश्च, सेसा - शेषा: गन्धरूपशब्दा: भोगेत्ति - भोगा इति, आहिया—-आहिताः प्रतिपादिताः ज्ञाता वा । स्पर्शनेन्द्रियप्रवृत्तिकारणत्वाद् रूपशब्दो भोगो, रसनेन्द्रियस्य प्रवृत्तिहेतोः स्पर्शनेन्द्रियस्य च घ्राणं भोगोऽतः यत एवं कामी रसस्पर्शो, गन्धरूपशब्दा भोगाः कथिताः, अत इन्द्रियार्थाः सर्वेपि कामा भोगाश्च विद्वद्भिः प्रज्ञप्ता इति ।। ११४० ॥ इन्द्रियैर्वेदनाप्रतिकारसुखं देवानामाह प्राईसाणा कप्पा देवा खलु होंति कायपडिचारा । फास पडिवारा पुण सणक्कुमारे य माहिंदे ॥। ११४१ ।। आयमभिविधी द्रष्टव्यः असंहिततया निर्देशोऽसंदेहार्थः तिर्यङ मनुष्यभवनवासिव्यन्तरज्योति: सौधर्माणां ग्रहणं लब्धं भवति, ईसाणा - ईशानात्, कप्पा – कल्पाः, देवा — देवाः, खलु - स्फुटं, होंतिभवन्ति, कायपविचारा - कायप्रतीचाराः “प्रतीचारो मैथुनोपसेवनं वेदोदयकृतपीडाप्रतीकारः" काये कायेन वा प्रतीचारो येषां ते कायप्रतीचारास्तिर्यङ मनुष्या भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशाना देवा देव्यश्च स्फुटं भवन्ति कायप्रतीचाराः सक्लिष्टकर्म कलंकत्वान्मनुष्यवत्स्त्री सुखमनुभवन्तीति । अवधिग्रहणादितरेषां सुखविभागे प्रतिज्ञाते तत्प्रतिज्ञानायाह - फासपडिवारा - स्पर्श प्रतीचाराः स्पर्शे स्पर्शनेन वा प्रतीचारो विषयसुखानुभवनं येषां ते स्पर्शप्रतीचाराः, पुण-पुनरन्येन प्रकारेण सणक्कुमारे य - सनत्कुमारे च कल्पे, माहिदे — मान्द्र कल्पे देवा इत्यनुवर्त्तते । सानत्कुमारे कल्पे माहेन्द्रकल्पे च ये देवास्ते स्पर्श प्रतीचाराः - देवांगना है अथवा वैसा देखा और जाना जाता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के उदय से जो विषयों की अभिलाषा होती है उसके लिए कारण होने से स्पर्श और रस इन दो को काम कहा है । यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार है। स्पर्शन इन्द्रिय की प्रवृत्ति में कारण होने से रूप और शब्द भोग हैं, रसना इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय की प्रवृत्ति में हेतु होने से घ्राण भोग है । इस प्रकार से रस और स्पर्श काम हैं तथा गन्ध, रूप और शब्द भोग कहे गये हैं । इस प्रकार विद्वानों ने सभी पाँचों इन्द्रियों के विषयों को काम और भोगरूप से कहा है । देवों के इन्द्रियों द्वारा वेदना के प्रतीकार का सुख है, ऐसा कहते हैं गाथार्थ -- ईशान स्वर्ग पर्यन्त के देव निश्चित ही काय से कामसेवन करते हैं । पुनः सानत्कुमार और माहेन्द्र में स्पर्श से कामसेवन करते हैं ।। ११४१ ।। आचारवृत्ति - यहाँ पर 'आङ' अव्यय अभिविधि अर्थ में ग्रहण करना चाहिए तथा गाथा में संधि न करके जो निर्देश है वह असंदेह के लिए है । इससे तिर्यंच, मनुष्य, भवनवासी व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्मस्वर्ग के देव इनका ग्रहण हो जाता है । ये तिर्यंच आदि तथा ईशान स्वर्ग तक के देव काय से मैथुन का सेवन करते हैं अर्थात् वेद के उदय से हुई पीडा का प्रतीकार कार्य से काम सेवन द्वारा करते हैं, क्योंकि संक्लिष्ट कर्म से कलंकित होने से ये देव भी मनुष्यों के समान स्त्री-सुख का अनुभव करते हैं । यहाँ तक देवों की मर्यादा कर देने से आगे के देवों में किस प्रकार से कामसुख है उसे ही स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आगे सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों के देव देवांगनाओं के स्पर्शमात्र से कामकृत प्रीतिसुख का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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