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________________ २८२] [ मूलाचारे लेश्यायाः सर्वत्र सम्बन्धः, काऊ' काऊ-कापोती कापोती जघन्यकापोतलेश्या, तह-तथा, काऊ-कापोती मध्यमकापोतलेश्या, णील-नीला जघन्यनीललेश्या उत्कृष्टकापोतलेश्या, नीलाय-नीला च मध्यमनीला, नीलकिण्हाय-नीलकृष्णा चोत्कृष्टनीला जघन्यकृष्णा च, किण्हाय-कृष्णा च मध्यमकृष्णलेश्या, परमकिण्हा-परमकृष्णा सर्वोत्कृष्टकृष्णलेश्या, लेस्ता-लेश्या कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिः, रदणादि-रत्नादिषु पुढवीसु-धरित्रीषु रत्नप्रभादिसप्तसु नरकेषु यथासंख्येन संबन्धः। रत्नप्रभायां नारकाणां जघन्यकापोतलेश्या, द्वितीयायां शर्कराप्रभायां मध्यमकापोतलेश्या, तुतीयायां वालुकाप्रभायामुपरिष्टादुत्कृष्टकापोतीलेश्या अधो जघन्यनीला च, चतुर्थ्यां पंकप्रभायां मध्यमनीललेश्या, पंचम्यां धूमप्रभायाम् उपरि उत्कृष्टनीला अधो जघन्यकृष्णा च, षष्ठयां तमःप्रभायां मध्यमकृष्णलेश्या, सप्तम्यां महातमःप्रभायामुत्कृष्टलेश्या सर्वत्र नारकाणामिति संबन्धः । स्वायुःप्रमाणावधता द्रव्यलेश्याः। भावलेश्यास्तु अन्तर्मुहूर्तपरिवर्तिन्यः । न केवलमशुभलेश्याः नारकाणां किन्तु अशुभपरिणामा अशुभस्पर्शरसगन्धवर्णाः क्षेत्रविशेषनिमित्तवशादतिदुःखहेतवोदेहाश्च तेषामशुभनामोदयादत्यन्ताशुभतराःविकृताकृतयो हुण्डसंस्थाना इति ॥११३६।। देवानां लेश्याभेदमाह तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्म पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदो मुणेयव्वो ॥११३७॥ आचारवृत्ति-कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। इन कापोत आदि लेश्याओं का सातों नरकों में क्रम से सम्बन्ध करना। रत्नप्रभा नरक में नारकियों के कापोत लेश्या है। शर्कराप्रभा नरक में मध्यम कापोत लेश्या है। बालुका प्रभा में उपरिम भाग में उत्कृष्ट कापोत लेश्या है और नीचे पाथड़ों में जघन्य नील लेश्या है, पंकप्रभानरक में मध्यम नील लेश्या है,धूमप्रभा में ऊपर के पाथड़ों में उत्कृष्ट नील लेश्या है और अधोभाग में पाथड़ों में जघन्य कृष्ण लेश्या है, तमःप्रभा नरक में मध्यम कृष्ण लेश्या है और महातम:प्रभा नामक सातवें नरक में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है। सभी जगह नारकियों में लेश्या का सम्बन्ध करना। लेश्या के दो भेद हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । शरीर के वर्ण का नाम द्रव्यलेश्या है और कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति रूप भावों का नाम लेश्या है। अपनी आयु प्रमाण रहने वाली द्रव्यलेश्या है और अन्तर्महर्त में परिवर्तन होनेवाली भावलेश्या है। नारकियों को लेश्याएँ ही अशुभ नहीं किन्तु उनके परिणाम, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण भी अशुभ होते हैं। ये क्षेत्रविशेष के निमित्तवश अतिदुःख में कारण होते हैं और उनके शरीर अशुभ कर्म के उदय से अत्यन्त अशुभतर विकृत आकृति रूप और हुण्डक संस्थानवाले होते हैं। देवों के लेश्याभेद को कहते हैं गाथार्थ-जघन्यपीत, मध्यपीत, उत्कृष्टपीत और जघन्यपद्म, मध्यपद्म, उत्कृष्टपद्म और जघन्यशुक्ल, मध्यमशुक्ल और परमशुक्ल ये लेश्या के भेद जानना चाहिए ॥११३७॥ १. 'काऊ-कापोती जघन्य कापोतलेश्या काउ, कापोती मध्यमकापोतलेश्या, तह-तथा, काऊणीलेकपोतीनीले उत्कृष्टकापोतलेश्या, जघन्यनीललेश्या च, इति चैके। २. . तमस्तमप्रभायां। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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