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________________ पर्याप्त्यधिकार] नोऽसंज्ञिनश्च वेदेन नपुंसका भवन्तीति ज्ञातव्या नात्र सन्देहः सर्वज्ञवचनं यत इति ॥११३०॥ स्वामित्वेन स्त्रीलिंगपुंल्लिगयोः स्वरूपमाह देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुयतिरिया। ते होंति दोसुभेदेसु णत्थि तेसि तदियवेदो ॥११३१॥ देवा य-देवा भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनः, च शब्दः समुच्चयार्थः भोगभूमा'भोगभौमास्त्रिशद्भोगभूमिजातास्तिर्यङ्मनुष्याः, असंखवासाउगा-असंख्यवर्षायुषो भोगभूमिप्रतिभागजाः, सर्वे म्लेच्छखण्डोत्पन्नाश्च मनुष्याः, तिरिया-तियंच:, से होंति–ते भवन्ति, दोसु बेवेषु-दयोर्वेदयोर्दाभ्यां, वेदाभ्यां गत्यि-नास्ति न विद्यते, तेसि-तेषां पूर्वोक्तानां तदियवेदो-तृतीयवेदो नपुंसकलिंगम् । देवा भोग मौमा असंख्यातवर्षायुषस्तियंच: भोगभूमिप्रतिभागजाः च शब्दान्म्लेच्छाश्च सर्वे एते स्त्रीमिंगपुंल्लिगाया भवन्ति, नास्ति तृतीयं नपुंसकलिंगमिति ॥११३१॥ विशेषणं बिलिंगत्वं प्रतिपादयन्नाह पंचेंदिया दु सेसा सण्णि असण्णीय तिरिय मणुसा य । ते होंति इत्थिपुरिसाणपुंसगा चावि वेदेहिं ॥११३२॥ पं.दिया दु-पंचेन्द्रियास्तु, सेसा-शेषाः देवनारकभोभूमिजभोगभूमिप्रतिभागजतिर्यम्लेच्छवा अन्ये, सण्णि-संज्ञिनः, असणीय-असंज्ञिनश्च, तिरिय-तिर्यचः, मनुसा य-मनुष्याश्च, ते होंतिजोव इन सबके नियम से एक नपं सक वेद ही होता है, इसमें सन्देह नहीं करना क्योंकि यह सर्वज्ञ देव का कथन है। स्त्रीलिंग और पुल्लिग के स्वामी को बताते हैं गाथार्थ-देव, भोगभूमिज, असंख्यवर्ष आयुवाले मनुष्य और तिर्यच ये दो वेद में होते हैं, उनके तीसरा, नपुंसक वेद नहीं है ॥११३१॥ आचारवत्ति-भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव, तीसों भोगभूमियों में उत्पन्न होनेवाले तियंच और मनुष्य, 'भोगभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हए असंख्यात वर्ष की आयुवाले तथा सभी म्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य और तियंच स्त्रीलिंग और पुल्लिग ही होते हैं, उनमें नपुंसकलिंग नहीं होता है। तीन लिंग वालों को कहते हैं गाथार्थ-शेष संज्ञी और पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य ये वेदों की अपेक्षा स्वी, पुरुष और नपुंसक भी होते हैं॥११३२॥ आचारवत्ति-शेष-देव, नारकी, भोगभूमिज व भोगभूमि प्रतिभागज तियंच और मनुष्य तथा म्लेच्छ को छोड़कर बाकी बचे पंचेन्द्रिय सैनी व असैनी तिर्यंच और मनुष्यों में १. भोरभोमा। २. . मण्या य। ३. भोमभूमिण मनुष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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