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मूलाचार
वाङमनोयोगा भवन्ति, द्वीन्द्रियाद्यसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्यन्ता कायवचनयोगा भवन्ति, पृथिवीकायिकादिवनस्पतिकायान्ताः काययोगा भवन्ति, "सिद्धास्तु त्रिभिर्योग रहिता भवन्ति । चशब्दादयमों लब्धश्चतुर्विधस्य मनोयोगस्य चतुर्विधस्य वाग्योगस्य सप्तविधस्य काययोगस्य च तेष्वभावादिति ॥११२९॥ स्वामित्वेन वेदस्य स्वरूपमाह
एइंदिय विलिदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सम्वे।
वेदे णपुंसगा ते णादल्या होति णियमादु॥११३०॥ एइंदिय-एकेन्द्रियाः पृथिवीकायिकादिवनस्पत्यन्ताः, वियलिदिय-विकलेन्द्रिया, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः, णारय-नारकाः, सम्मुच्छिमा य--सम्मूच्र्छनाश्च, खल-स्फुटं, सब्वे-सर्वे तेन' पंचेन्द्रियाः संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च गृह्यन्ते सम्मूच्छिमविशेषणान्यथानुपत्तेः । एकेन्द्रियविकलेन्द्रियास्तु सम्मूच्छिमा एव तेषां विशेषणमनुपपपन्नमेव । वेद-वेदेन वेदस्त्रिविधः स्त्रीवेदः पुंवेदो नपुंसकवेदश्च स्त्रीलिंग पुंलिंग नपुंसकलिंगमिति यावत्, स्त्यायत्यस्यां गर्भ इति स्त्री, सूते पुरुगुणानिति पुमान्, न स्त्री न पुमानिति नपुंसकं, स्त्रीबुद्धिशब्दयोः प्रवृत्तिनिमित्तं स्त्रीलिंगं, पुबुद्धिशब्दयोः प्रवृत्तिनिमित्त पुंल्लिगं, नपुंसकबुद्धिशब्दयोः प्रवृत्तिनिमित्तं नपुंसकलिंगं तेन लिंगेन नपुंसकवेदेन नपुंसका नपुंसकलिंगाः, णायव्वा-ज्ञातव्याः, होति-भवन्ति, नियमानु -नियमान् निश्चयात् । सर्वे एकेन्द्रियाः, सर्वे च विकलेन्द्रियाः, नारकाः सर्वे सम्मूर्छनजाः पंचेन्द्रियाः संशि
से लेकर असनी पंचेन्द्रियपर्यन्त जीवों के वचनयोग और काययोग ये दो होते है तथा पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिकपर्यन्त एकेन्द्रिय जीवों में एक काययोग ही होता है। सिद्ध भगवान तीनों योगों से रहित होते हैं। अर्थात् च शब्द से यह अर्थ उपलब्ध होता है कि चार प्रकार के मनोयोग, चार प्रकार के वचनयोग और सात प्रकार के काययोग का सिद्धों में अभाव है।
स्वामी की अपेक्षा से वेद का स्वरूप कहते हैं
गाथा-एकेन्दिय, विकलेन्द्रिव, नारकी और सम्मूर्च्छन ये सभी नियम से नपुंसक होते हैं, ऐसा जानना ॥११३०॥
आचारवृत्ति-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसंक वेद की अपेक्षा वेद के तीन भेद हैं । इन्हें लिंग भी कहते हैं । जिसमें गर्भ वृद्धिंगत होता है उसे स्त्री कहते हैं। जो पुरु अर्थात् श्रेष्ठ गुणों को जन्म देता है उसे पुरुष कहते हैं। तथा जो न स्त्री है न पुरुष उसे नपुसंक कहते हैं। स्त्री की बद्धि और स्त्री शब्द की प्रवृत्ति के लिए निमित्त स्त्रीलिंग है, पुरुष की बुद्धि और पुरुष शब्द की प्रवत्ति के लिए पुल्लिग है और नपुसंक की बुद्धि और शब्द के लिए निमित्त नपुंसकलिंग है।
पृथ्वी से वनस्पतिकाय पर्यन्त एकेन्द्रिय जीव, विकलेन्द्रिय जीव, नारकी जीव तथा सम्मूर्छन (अर्थात् पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन, के संज्ञी-असंज्ञी दो भेद हैं उन दोनों को ग्रहण करना है अन्यथा सम्मूर्च्छन विशेषण हो नहीं सकता; कारण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय तो सम्मूर्च्छन ही हैं मनके लिए यह विशेषण बनता नहीं है), के एक नपुंसक वेद होता हैं। तात्पर्य यह हुआ कि एकेन्द्रिय,विकलेन्द्रिय, नारकी व सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न होनेवाले पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी
१.क सिखाः पृनस्त्रियोग रहिता भवन्ति । २. क नाम ।
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