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________________ २६४] [मूलाचार पल्लट्ठभाग-पल्याष्टभागः पल्योपमस्याष्टभागः, पल्लं च--पल्योपमं च साधियं-साधिकं वर्षलक्षेणाधिकं, जोदिसाण-ज्योतिषां चन्द्रादीनां, जहण्णिदरं-जघन्यमितरच्च । ज्योतिषां जघन्यमायुः पल्योपमस्याष्टभाग उत्कृष्टं च पल्योपमं वर्षलक्षाधिकं घातायुरपेक्ष्य पल्योपमं सार्द्धमुत्कृष्टम् । हेदिल्लक्कस्सठिवीअध उत्कृष्टायुः स्थितिः, अधःस्थितानां ज्योतिष्कादीनां, सक्कादीणं-शक्रादीनां सौधर्मादिदेवानां, जहण्णा सा-जघन्या सा। ज्योतिषां योत्कृष्टायुषः स्थितिः सौधर्मशानयोः समयाधिका जघन्या सा सोधर्मशानयोरुत्कृष्टायुषः स्थितिः सानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवानां समयाधिका जघन्या सा, सानत्कुमार-माहेन्द्रर्योयोत्कृष्टा ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः समयाधिका जघन्या सा एवं योज्यं यावत् त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणीति ।।११२०॥ अथ कोत्कृष्टाऽऽयुषः स्थितिः शक्रादीनां या जघन्या स्यादित्यत आह वे सत्त दसय चोद्दस सोलस अट्ठार वीस बावीसा। एयाधिया य एत्तो सक्कादिस सागरुवमाणं ॥११२२॥ वे-द्वे, सत्त-सप्त, दस य-दश च, चोदस-चतुर्दश, सोलस—षोडश, अट्ठार-अष्टादश, वीस-विंशतिः, वावीस--द्वाविंशतिः, एयाधिया -एकाधिका एकैकोत्तरा, एत्तो-इतो द्वाविंशतेरुध्वं, सक्कादिसु-शकादिषु सौधर्मेशानादिषु, सागरुवमाणं-सागरोपमानम् । सौधर्मेशानयोर्देवानां द्वे सागरोपमे परमायुष: स्थितिरघातायुषोऽपेक्ष्येतदुक्त सूत्रे, घातायुषोऽपेक्ष्य पुन सागरोपमे सागरोपमार्धेनाधिके भवतः, एवं सौधर्मशानमारभ्य तावदद्ध सागरोपमेनाधिकं कर्तव्यं सूत्रनिर्दिष्टपरमायुर्यावत्सहस्रारकल्पः उपरि आचारवृत्ति-ज्योतिषी देवों चन्द्रआदिकों की जघन्य आयु पल्य के आठव भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट आयु लाख वर्ष अधिक एक पल्य है। तथा घातायुष्क की अपेक्षा डेढ़ पल्योयम उत्कृष्ट आयु है। इन अधःस्थित अर्थात् ज्योतिष आदि देवों की जो उत्कृष्ट आयु है वही एक समय अधिक होकर सौधर्म और ईशान स्वर्ग में जघन्य आयु है। सौधर्म-ईशान की उत्कृष्ट आयु एक समय अधिक होकर सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग में जघन्य हो जाती है । सानत्कुमार-माहेन्द्र की जो उत्कृष्ट आयु है वही एक समय अधिक होकर आगे के ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में जघन्य हो जाती है। इस प्रकार से तेतीससागर की उत्कृष्ट आयु होने पर्यन्त यही व्यवस्था समझनी चाहिए। सौधर्म आदिकों में उत्कृष्ट स्थिति क्या है जो कि आगे जघन्य होती है ? उसे ही बताते हैं गाथार्थ-सौधर्म आदि स्वर्गों में इन्द्रादिकों की आयु दो सागर, सात सागर, दश सागर, चौदह सागर, सोलह सागर, अठारह सागर, बीस सागर और बाईस सागर है तथा इससे आगे एक एक सागर अधिक होती गयी है ।।११२१॥ आचारवृत्ति-सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवों उत्कृष्ट आयु दो सागर है । यह कथन घातायुष्क की अपेक्षा के बिना है । घातायुष्क की अपेक्षा से यह अर्ध सागर अधिक होकर ढाई सागर प्रमाण है । यह घातायुष्क की विवक्षा सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक है अतः वहाँ तक में निम्न कथित उत्कृष्ट आयु में अर्ध-अर्ध सागर बढ़ाकर ग्रहण करना चाहिए ; क्योंकि सहस्रार .. के ऊपर घातायुष्क जीवों की उत्पत्ति का अभाव है, अतः आगे बढ़ाना चाहिए। १. क-मायुः प्रमाणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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