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________________ पर्याप्त्यधिकारः] [२४५ विसया--विषया: ग्रहणगोचराणि, णवजोयणा-नव योजनानि, णायव्वा-ज्ञातव्यानि,सोवस्स-श्रोत्रस्य त श्रोत्रन्द्रियस्य पुनः, वारस जोयणाणि-द्वादश योजनानि इदो-इत ऊर्व, चवखसो-चक्षुषःसंज्ञिपंचेन्द्रियस्य चक्षरिन्द्रियस्य च, वोच्छं-वक्ष्ये, संज्ञिपंचेन्द्रियस्य प्रकृष्टेन्द्रियस्य चक्रवादः स्पर्शनेन्द्रियस्य नवयोजनानि विषयः रसनेन्द्रियस्य नव योजनानि विषयः, घ्राणेन्द्रियस्य नव योजनानि विषयः, श्रोत्रेन्द्रियस्य द्वादश योजनानि विषयः, संज्ञिपंचेन्द्रिय उत्कृष्टपुद्गलपरिणामान्तवभिनंवभिर्योजनः स्थितानि स्पर्शरसगन्धद्रव्याणि स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियगृह्णाति शब्दं पुनादशयोजनः स्थितं श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्णाति ॥१०६८॥ सूचितचक्षुर्विषयमाह सत्तेतालसहस्सा वे चेव सदा हवंति तेसट्री। चक्खिदिअस्स विसओ उक्कस्सोहोदि अदिरित्तो ॥१०६६॥ सत्तेताल-सप्तचत्वारिंशत्, सहस्सा-सहस्राणि, वे चेव सदा-द्वे चैव शते, हवंति-भवन्ति तेसट्ठी-त्रिषष्ट्यधिके योजनानामिति सम्बन्धः चक्खिदियस्स-चक्षुरिन्द्रियस्य, विसओ-विषयः, उक्कसो-उत्कृष्टः होदि-भवति अदिरित्तो-अतिरिक्तः, अतिरिक्तस्य प्रमाणं गव्यूतमेकं दण्डानां द्वादशशतानि पंचदशदण्डाधिकानि हस्तश्चैकः द्वे चांगले साधिकयवचतुर्थभागाधिके; संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकचारिन्द्रियस्य विषयो योजनानां सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि त्रिषष्ट्यधिकद्विशताधिकानि पंचदशाधिकद्वादशशतदण्डाधिककगव्यूताधिकानि सविशेषयवचतुर्थभागाधिकद्व्यंगुलाधिककहस्ताधिकानि च । एतावताध्वना संज्ञिपंचेन्दिा. पर्याप्तको रूपं पश्यतीति ॥१०६६।। अस्यैव प्रमाणस्यानयने करणगाथामाह अस्सीदिसदं विगुणं दीवविसेसस्स वग्ग दहगुणियं । मूलं सठिविहत्तं दिणद्धमाणाहतं चक्खू ॥११००॥ ये अपने स्पर्श-स्पर्शनेन्द्रिय, रस-रसनेन्द्रिय और गन्ध-घ्राणेन्द्रिय के द्वारा नव-नव योजन तक स्थित स्पर्श, रस और गन्ध द्रव्यों को ग्रहण कर लेते हैं तथा कर्ण इन्द्रिय के द्वारा बारह योजन में उत्पन्न हुए शब्दों को सुन लेते हैं। अब सूचित किये गये चक्षु के विषय को कहते हैं गाथार्थ-सैंतालीस हज़ार दो सौ त्रेसठ योजन और कुछ अधिक ऐसा चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय होता है ।। १०६६॥ आचारवृत्ति-चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय सैंतालीस हज़ार दो सौसठ योजन, एक कोश, बारह सौ पन्द्रह धनुष, एक हाथ दो अंगुल और कुछ अधिक जौ का चतुर्थ भाग प्रमाण है । अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक चक्रवर्ती आदि इतने प्रमाण मार्ग में स्थित रूप को देख लेते हैं। इसी प्रमाण को निकालने के लिए करण सूत्र कहते हैं गाथार्थ-एक-सौ अस्सी को दूना करके जम्बूद्वीप के प्रमाण में से उसे घटाकर, पुनः उसका वर्ग करके उसे दस से गुणा करना, पुनः उसका वर्गमूल निकालकर साठ का भाग देना और उसे नव से गुणा करना जो संख्या आये वह चक्ष का उत्कृष्ट विषय है ॥११००॥ १. कविषयो ग्रहणगोचरः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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