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________________ विधिकाराः ] [ २२१ उस्सेहो - भवत्युत्सेधः, पंचेव धणुसयाई - पंचैव धनुःशतानि, पमाणदो चेव---प्रमाणतश्चैव नान्यत्, बोधव्याबोद्धव्यानि । सप्तम्यां महातमप्रभायामवधिस्थानकेन्द्रकनाम्नि नारकाणामुत्सेधः प्रमाणत: पंचैव धनुः शतानि नाधिकानीति । एवं सर्वासु पृथिवीषु स्वकीयेन्द्रकप्रतिबद्धेषु श्रेणिधिश्रेणिबद्धेषु पुष्पप्रकीर्णकेषु च नारकाणामुत्सेधः स्वकीयेन्द्रनारकोत्सेधसमानो वेदितव्यः । प्रथमायां पृथिव्यां प्रथमप्रस्तारे सीमन्त केन्द्रकनाम्नि महादिक्षु श्रेणीबद्धनरकाण्येकोनपंचाशदेकोनपंचाशदिति । विदिक्षु चाष्टचत्वारिंशदष्टचत्वारिंशदिति । एवमष्टावष्टी हानि कृत्वा तावन्नेतव्यं यावदवधिस्थानस्य चत्वारि दिक्षु श्रेणिद्धानीति । प्रथमायां पृथिव्यां त्रिशल्लक्षाणि नारकाणां तान्येव श्रेणिबद्धन्द्रकरहितानि पुष्पप्रकीर्णकानि । द्वितीयायां पंचविशतिलक्षा नारकाणां तान्येव श्रेणिबद्धन्द्रकरहितानि पुष्पप्रकीर्णकानि । तृतीयायां पंचदशलक्षा नारकाणाम् । चतुर्थ्यां दशलक्षा नारकाणाम् । पंचम्यां लक्षत्रयं नारकाणाम् । पष्ठ्यां पंचोनं लक्षं नरकाणाम् । सप्तम्यां पंचैव नारकाणि । सर्वत्र श्रेणिबद्धन्द्रकरहितपुष्पप्रकीर्णकानीति प्रमाणं व्यावणितं देहोऽपि व्यावणितस्तदव्यतिरेकाद्गुणगुण्य भेदेन' की ऊँचाई प्रमाण से पाँच सौ धनुष ही है, अधिक नहीं है । इस प्रकार से सभी नरक - पृथिवियों में अपने-अपने इन्द्रक-प्रस्तार से सम्बन्धित श्रेणीबद्ध, विश्रेणीबद्ध और पुष्पप्रकीर्णक बिलों में नारकियों के शरीर की ऊँचाई अपने-अपने इन्द्रक के नारकियों की ऊँचाई के समान ही समझनी चाहिए। उसे ही कहते हैं नाम के प्रथम प्रस्तार की चारों महादिशाओं में तथा चारों विदिशाओं में अड़तालीस - अड़तालीस प्रति इन श्रेणीबद्ध, विश्रेणीबद्ध बिलों में आठ-आठ प्रथम पृथिवी में सीमन्तक इन्द्रक उनंचास- उनंचास श्रेणीबद्ध नरक बिल हैं बिल हैं। इस प्रकार एक-एक प्रस्तार के की हानि करते हुए अवधिस्थान नामक अन्तिम प्रस्तार की चारों दिशाओं में चार श्रेणीबद्ध बिलों के होने तक ऐसा करना चाहिए। इस प्रकार से प्रत्येक नरक के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक सभी को संकलित करने पर प्रथम पृथिवी में तीस लाख नरक बिल हैं । इन्हीं में से इन्द्रक-प्रस्तार तथा श्रेणीबद्ध की संख्या घटा देने पर पुष्पप्रकीर्णक बिलों का प्रमाण निकल आता है । दूसरी पृथिवी में पच्चीस लाख नरक बिल हैं । इनमें से इन्द्रक और श्रेणीबद्ध का प्रमाण घटा देने से पुष्पप्रकीर्णक बिलों का प्रमाण रह जाता । तृतीय पृथिवी में पन्द्रह लाख नरक बिल हैं उसमें से इन्द्रक, श्रेणीबद्ध से रहित पुष्पप्रकीर्णक बिलों का प्रमाण है। चौथी में दश लाख नरक बिल हैं। इनमें भी इन्द्रक, श्रेणीबद्ध बिलों रहित पुष्पप्रकीर्णक बिल हैं। पाँचवीं में तीन लाख नरक बिल हैं। इसमें भी इन्द्रक, श्रेणीबद्ध रहित शेष पुष्पप्रकीर्णक बिल हैं। छठी में पाँच कम एक लाख नरक बिल हैं। इसमें भी इन्द्रक, श्रेणीबद्ध रहित शेष पुष्पप्रकीर्णक बिल समझना। सातवीं पृथिवी में पाँच ही नरकबिल हैं । इसमें प्रकीर्णक नहीं हैं। इस प्रकार से सभी नरकों में इन्द्रक और श्रेणीबद्ध के घटाने से पुष्पप्रकीर्णक बिलों का प्रमाण होता है, ऐसा कहा गया है । देह के प्रमाण का वर्णन करने से देह का भी वर्णन कर दिया गया है, क्योंकि गुण और गुणी में अभेद होने से वह देह उस प्रमाण से अभिन्न ही है, इसलिए देह के स्वरूप को बिना कहे भी प्रमाण के कथन करने में कोई दोष नहीं है । नारकियों का शरीर वैक्रियिक होते हुए भी १. के गुणगुण्यभेदाच्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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