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________________ १७६ ] [ मूलाचारे दश निःस्वेदत्वादिकाः घातिकर्मक्षयजा दश गव्यूतिशतचतुष्टय सुभिक्षत्वादिका, देवोपनीताश्चतुर्दश सर्वार्द्धमागधिकभाषादयः, पाडिहेर - प्रातिहार्याण्यष्टो सिंहासनादीनि, जुबे युक्तान् सहितान् कल्याणानि चातिशयविशेषाश्च प्रातिहार्याणि च कल्याणविशेष प्रातिहार्याणि तैर्युक्तास्तान् कल्याणविशेषप्रातिहार्ययुक्तान् सर्वान् सर्वज्ञत्वचिह्नोपेतान् त्रिषष्टिकर्मक्षयजगुणसंयुक्तान्, वंदिता-वंदित्वा प्रणम्य, अरहंते - अर्हतः सर्वज्ञनाथान्, सीलगुणे - शीलगुणान् शीलानि गुणांश्च, कित्तइस्सामि—कीर्तयिष्यामि सम्यगनुवर्त्तयिष्यामि । मर्हतः शीलगुणालयभूतान् कल्याणविशेषप्रातिहार्ययुक्तान् वंदित्वा शीलगुणान् कीर्तयिष्यामीति सम्बन्धः ॥ १०१८॥ शीलानां तावदुत्पत्तिक्रममाह जो करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य । अotoह प्रभत्या अट्ठारहसील सहस्साइं ॥ १०१६॥ जोए - योग आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः स निमित्तभेदात् त्रिधा भिद्यते काययोगो मनोयोगो वाग्योग इति । तद्यथा वीर्यान्तरायक्षयोपशमसद्भावे सत्योदारिका दिसप्तकाय व र्गणान्यतमालंबनापेक्ष आत्मप्रदेशपरि- स्पंदः काययोगः, शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्णनालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराद्यावरणक्षयोपशमादिनाभ्यन्त र वाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः, अभ्यन्तर वीर्यान्तरायनन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोल ब्धिसन्निधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने सति मनःपरिणामाभि आदि दश स्वाभाविक अतिशय होते हैं। चार सौ कोश तक सुभिक्ष का होना इत्यादि दश अतिशय घात कर्म के क्षय से होते हैं । सर्वार्द्ध मागधी भाषा आदि रूप से चौदह अतिशय देवों द्वारा कृत होते हैं। ये चौंतीस अतिशय विशेष कहलाते हैं। सिंहासन, छत्रत्रय आदि आठ प्रतिहार्य होते हैं । अरिहंतदेव पाँच कल्याणक, चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्यों से युक्त होते हैं । सठ कर्म प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न हुए गुण से संयुक्त, सर्वज्ञ के चिह्न से सहित, पंचकल्याणक, चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्यों से युक्त तथा शील और गुणों के आलय स्वरूप सर्वज्ञनाथ सम्पूर्ण अरिहंत परमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं शील और गुणों का अच्छी से वर्णन करूंगा । Jain Education International शील के भेद की उत्पत्ति का क्रम कहते हैं गाथार्थ - तीन योग, तीन करण, चार संज्ञाएँ, पाँच इन्द्रियाँ, पृथ्वी आदि षट्काय और दश श्रमण धर्म - इन्हें परस्पर में गुणा करने से शील के अठारह हज़ार भेद हो जाते हैं ।। १०१६ ॥ आचारवृत्ति - आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन योग कहलाता है । वह निमित्त के भेद से तीन प्रकार हो जाता है - काययोग, वनयोग और मनोयोग । उसी को कहते हैं - वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक के अवलम्बन की अपेक्षा करके जो आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है वह काययोग है। शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचनवर्गणाओं का अवलम्बन लेने पर तथा वीर्तान्तराय का क्षयोपशम और मति अक्षरादि ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से अभ्यन्तर में वचनलब्धि का सान्निध्य होने पर वचन परिणाम के अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है वह वचनयोग कहलाता है । अभ्यन्तर में वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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